भूमिका
महाराज घटोत्कच का पुत्र और उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त प्रथम हुआ। वह प्रारम्भिक गुप्त शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था। राज्यारोहण के पश्चात् उसने अपनी महत्ता सूचित करने के लिये अपने पूर्वजों के विपरीत ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ग्रहण की। प्रयाग प्रशस्ति में उसे “महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त” () कहा गया है।
संक्षिप्त परिचय

नाम | चंद्रगुप्त प्रथम (चन्द्रगुप्त प्रथम) |
उपाधि | महाराजाधिराज |
पिता | घटोत्कच |
पत्नी | कुमारदेवी |
पुत्र | समुद्रगुप्त |
राज्यारोहण | २६ फरवरी, ३१९ ई० |
शासनकाल | ३१९ से ३३५ ई० |
पूर्ववर्ती शासक | घटोत्कच |
उत्तराधिकारी | समुद्रगुप्त |
धर्म | वैष्णव (हिन्दू) |
लिच्छवियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध
चन्द्रगुप्त के शासन काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना गुप्तों तथा लिच्छवियों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध की स्थापना है। चन्द्रगुप्त प्रथम एक दूरदर्शी सम्राट था। लिच्छवियों का सहयोग और समर्थन प्राप्त करने के लिये उसने उनकी राजकुमारी कुमारदेवी के साथ अपना विवाह किया। इस वैवाहिक सम्बन्ध की पुष्टि निम्नलिखित प्रमाणों से होती है—
सिक्कों का प्रमाण
एक प्रकार के स्वर्ण सिक्के जिन्हें चन्द्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार, लिच्छवि प्रकार, राजा-रानी प्रकार, विवाह प्रकार आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। इस प्रकार के लगभग २५ सिक्के गाजीपुर, टांडा (फैजाबाद), मथुरा, वाराणसी, अयोध्या, सीतापुर तथा बयाना (भरतपुर, राजस्थान) से प्राप्त किये गये हैं। उल्लेखनीय है कि हाल ही में इस प्रकार का एक चाँदी का सिक्का भी प्रकाश में आया है। सिक्के की बनावट तथा आकार-प्रकार स्वर्णमुद्रा जैसी ही है। यदि इसे स्वीकार कर लिया जाय तो हमें यह मान लेना पड़ेगा कि गुप्तवंश में सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही रजत मुद्राओं का प्रचलन करवाया था न कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने, जैसा कि अभी तक माना जाता रहा है। रजत मुद्रायें भारत में गुप्तों के पूर्व भी ज्ञात थीं। अतः कोई कारण नहीं कि हम चन्द्रगुप्त प्रथम को उनका प्रवर्तक न मानें।
- ए० एल० श्रीवास्तव ‘ए सिल्वर क्वायन ऑफ चन्द्रगुप्त कुमारदेवी टाइप। — जर्नल ऑफ द न्यूमिसमेटिक सोसायटी ऑफ इण्डिया, खण्ड 37, 1975, पृष्ठ 83-84.
उपर्युक्त सिक्कों के मुख भाग पर चन्द्रगुप्त तथा कुमारदेवी की आकृतियाँ उनके नामों के साथ-साथ अंकित है और पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ-साथ मुद्रालेख ‘लिच्छवयः’ उत्कीर्ण है।
प्रयाग प्रशस्ति का प्रमाण
समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति में उसे ‘लिच्छवि दौहित्र’ (लिच्छवि कन्या से उत्पन्न) बताया गया है। इतिहासकार स्मिथ की धारणा है कि इस वैवाहिक सम्बन्ध के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्र का सार्वभौम शासक बन बैठा। (Early History of India)
इसके विपरीत एलन महोदय इस सम्बन्ध को सामाजिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानते हुये लिखते हैं कि लिच्छवियों की सामाजिक कुलीनता के कारण ही गुप्तों को लिच्छवि रक्त पर गर्व था। (Catalogue of the Coins of the Gupta Dynasties, p. 19)
परन्तु यह निष्कर्ष तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि तत्कालीन समाज में लिच्छवियों की प्रतिष्ठा नहीं थी। मनुस्मृति स्पष्टतः उन्हें ‘व्रात्य’ (धर्मच्युत) कहती है।
“अतः गुप्त-लिच्छवि सम्बन्ध सामाजिक दृष्टि की अच्छी नहीं अपेक्षा राजनीतिक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण जान पड़ता है।”
“It appears more probable that the marriage alliance of Chandragupta I was highly important from a political Rather than social point of view.” — The Vakataka-Gupta Age, p. 118.
ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय लिच्छवियों के दो राज्य थे—
- एक, वैशाली का राज्य और
- द्वितीय, नेपाल का राज्य।
वैशाली लिच्छवियों का प्राचीन राज्य था। नेपाल में उन्होंने प्रथम अथवा द्वितीय शती के लगभग अपना दूसरा राज्य स्थापित कर लिया था।
कुमारदेवी के साथ विवाह कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली का राज्य प्राप्त कर लिया। नेपाल के राज्य को उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने अपने अधिकार में कर लिया था। प्रयाग प्रशस्ति में इस राज्य का उल्लेख गुप्तों के प्रत्यन्त राज्य (Frontier state) के रूप में किया गया है।
लिच्छवियों का पहले एक सुप्रसिद्ध गणराज्य था। संभव है इस समय तक उनकी शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक हो गयी हो तथा कुमारदेवी लिच्छवि राज्य की उत्तराधिकारिणी रही हो। यही कारण था कि चन्द्रगुप्त को उसका राज्य प्राप्त हो गया। इस वैवाहिक सम्बन्ध के ऊपर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी ने लिखा है ‘अपने महान् पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की।’
“Like his great fore-runner Bimbisara, he strengthened his position at some stage of his career by a matrimonial Alliance with the Lichchhavis of Vaishali or of Nepal and laid the foundations of the second Magadhan empire.” — Political History of Ancient India, p. 530.
यह सोचना सर्वथा तर्कसंगत लगता है कि इस विवाह के बाद ही चन्द्रगुप्त ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि ग्रहण की होगी। इसी विवाह की स्मृति में उसने राजा-रानी प्रकार के सिक्कों को चलवाया होगा।
यहाँ उल्लेखनीय है कि लिच्छवि राज्य आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त समृद्ध था। उसमें बहुमूल्य रत्नों की खान थी। बुद्धघोष की टीका ‘सुमंगलविलासिनी’ से ज्ञात होता है कि पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में मगधनरेश अजातशत्रु का लिच्छवियों के साथ संघर्ष रत्नों की खान पर नियंत्रण स्थापित करने के लिये ही हुआ था। अतः यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि इस सम्बन्ध में चन्द्रगुप्त को प्रभूत आर्थिक लाभ भी प्राप्त हुआ होगा। इस प्रकार लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त ने अपने राज्य को राजनीतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना लिया।
विवाद
लिच्छवियों से चंद्रगुप्त के विवाह और मगध पर लिच्छवियों के शासन से सम्बद्ध अनेक विवादास्पद प्रश्न उठाये गये हैं।
- कौमुदी महोत्सव नाटक के आधार पर जायसवाल का मानना था कि लिच्छवियों की मदद से गुप्तों ने मगध के किसी क्षत्रिय राजा को परास्त कर पाटलिपुत्र पर अधिकार किया। कौमुदी महोत्सव नाटक में वर्णित चण्डसेन (चंद्रसेन) की तुलना चंद्रगुप्त प्रथम से की गयी है।
- जायसवाल का यह मत अधिकांश विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है।
- स्मिथ महोदय का विचार था कि लिच्छवि पाटलिपुत्र के शासक थे और गुप्त-लिच्छवि वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप गुप्त मगध के शासक बने।
- डॉ० अल्टेकर के अनुसार इस विवाह के परिणामस्वरूप गुप्त एवं लिच्छवि राज्य संयुक्त हो गये। इस विवाह के कारण पाटलिपुत्र पर भी गुप्तों का आधिपत्य स्थापित हो गया, जहाँ लिच्छवि कुषाणों के अधीनस्थ शासक के रूप में शासन करते थे।
- एलन की धारणा है कि चंद्रगुप्त ने सर्वप्रथम वैशाली पर अधिकार किया जो लिच्छवियों के अधीन थी और संधि की शर्तों के अनुसार कुमारदेवी का विवाह चंद्रगुप्त से हुआ। इससे लिच्छवियों की प्रतिष्ठा बढ़ी। कुमारदेवी रानी और राज्य की उत्तराधिकारी होने के कारण महादेवी कहलाईं।
- गोयल कुमारदेवी को लिच्छवि राज्य का उत्तराधिकारिणी नहीं मानते हैं। उनका तर्क है कि गुप्त-लिच्छवि राज्य का वास्तविक उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त था, परंतु कुमारदेवी के पिता की— जो घटोत्कच के समकालीन थे—अनायास मृत्यु होने के कारण और उस समय तक समुद्रगुप्त के पैदा नहीं होने के कारण अथवा समुद्रगुप्त के अल्पवयस्क होने के कारण चंद्रगुप्त वैशाली पर शासन करते रहे। इस विवाह के परिणामस्वरूप गुप्तों और लिच्छवियों का एकीकरण हुआ जिससे गुप्तों की शक्ति बढ़ी। संभवतः इसीलिए चंद्रगुप्त महाराजाधिराज कहलाये।
ये सारे मत विवादास्पद हैं। बहरहाल जो भी हो “लिच्छवि-गुप्त-वैवाहिक” सम्बन्ध ने गुप्त साम्राज्य की नींव रखी जिसपर समुद्रगुप्त ने विशाल साम्राज्य की स्थापना की।
विजयें
चन्द्रगुप्त प्रथम की विजयों के सम्बन्ध में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। हम ठीक-ठीक उसकी साम्राज्य सीमा का निर्धारण भी नहीं कर सकते। वायु पुराण में किसी गुप्त राजा की साम्राज्य सीमा का वर्णन करते हुए बताया गया है कि ‘गुप्तवंश के लोग गंगा के किनारे प्रयाग तक तथा साकेत और मगध के प्रदेशों पर शासन करेंगे।’
“अनुगंगा (अनुगंगं) प्रयागञ्च साकेतम् मगधानतथा।
एतान् जनपदान् सर्वान् भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजाः॥”
— The Purana Text of The Dynasties of the Kali Age, p. 53; F. E. Pargiter
जिस साम्राज्य सीमा का उल्लेख यहाँ हुआ है, उसका विस्तार पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में प्रयाग तक था। स्पष्ट है कि यह साम्राज्य सीमा चन्द्रगुप्त प्रथम के समय की ही है क्योंकि—
- चन्द्रगुप्त प्रथम के पूर्ववर्ती दोनों शासक अत्यन्त साधारण स्थिति के थे।
- चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद के शासक समुद्रगुप्त का साम्राज्य इससे कहीं अधिक विस्तृत था।
प्रयाग प्रशस्ति आर्यावर्त तथा दक्षिणापथ में समुद्रगुप्त की विजयों का तो उल्लेख करती है किन्तु पश्चिम की ओर प्रयाग के पूर्व में गंगा नदी तक के भू-भाग की विजयों को चर्चा इसमें नहीं मिलती। इससे भी स्पष्ट है कि यह भाग चन्द्रगुप्त के अधिकार में था।
रायचौधरी के मतानुसार कौशाम्बी तथा कोशल के मघ राजाओं को चन्द्रगुप्त ने जीतकर उनके राज्यों पर अपना अधिकार कर लिया था।
राज्य विस्तार
चंद्रगुप्त प्रथम ने गुप्त राज्य की सीमा का विस्तार किया, यद्यपि उसके विजय-अभियान का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर ऐसा माना जाता है कि बिहार और उत्तरप्रदेश के अधिकतर भागों पर इसने अपना अधिकार कायम किया। अनेक विद्वानों का मानना है कि वायु पुराण में गुप्तों के राज्य से संबद्ध जिन क्षेत्रों का उल्लेख है— अनुगंगा (गंगा के तट), प्रयाग, साकेत और मगध— वह वस्तुतः चंद्रगुप्त प्रथम के राज्य की सीमा बताता है।
चंद्रगुप्त का कोई अभिलेख नहीं है जिससे उसके राज्य की सीमा निर्धारित की जा सके, परन्तु समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में कोसम (कौशाम्बी) या प्रयागराज से लेकर पूर्व में गंगा तक की विजय का उल्लेख नहीं है। इससे अनुमान लगता है कि चंद्रगुप्त ने इस क्षेत्र के माघवंशी शासकों को परास्त कर इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त द्वारा पद्मावती, मथुरा, अहिच्छत्र, श्रावस्ती और कौशांबी की विजय का उल्लेख हुआ है। इससे स्पष्ट होता है कि समुद्रगुप्त का पैतृक राज्य पश्चिम में उत्तर प्रदेश के मध्य तक था। पूर्व में उसका निकटतम पड़ोसी पश्चिम बंगाल का चंद्र था। इससे बंगाल पर चंद्रगुप्त के आधिपत्य की पुष्टि नहीं होती। मगध के उत्तर में किसी राज्य का उल्लेख नहीं है और नेपाल को सीमावर्ती राज्य बताया गया है। दक्षिण में समुद्रगुप्त का अभियान कोसल से आरंभ हुआ अतः मध्यप्रदेश के कुछ भाग चंद्रगुप्त के अधीन थे। ऐसी धारणा पी० एल० गुप्त की है। वे बंगाल पर भी चंद्रगुप्त का अधिकार मानते हैं, परंतु प्रो० गोयल के अनुसार, चंद्रगुप्त के साम्राज्य में समस्त बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्र— मगध, वैशाली, वत्स और कोशल सम्मिलित थे।
गुप्त संवत् का प्रवर्तन
चन्द्रगुप्त प्रथम को इतिहास में एक नये संवत् के प्रवर्तन का श्रेय भी दिया जाता है जिसे बाद के लेखों में ‘गुप्त-संवत्’ कहा गया। ‘गुप्त-संवत् को उनके अभिलेखों में ‘गुप्त-प्रकाल’ कहा गया है।
- “गुप्त-प्रकाले गणना विधाय॥” —स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख
फ्लीट की गणना के अनुसार इस संवत् का प्रचलन ३१९-३२० में किया गया था। इसके विपरीत शाम शास्त्री आदि विद्वान् इसकी प्रारम्भ तिथि २०० अथवा २०० ईस्वी मानते हैं। परन्तु निम्नलिखित प्रमाणों के प्रकाश में फ्लीट की तिथि ही तर्कसंगत प्रतीत होती है।
- कुमारगुप्त प्रथम के मन्दसौर अभिलेख की तिथि मालव संवत् ४९३ अर्थात् ४३६ ईस्वी है। कुमारगुप्त की प्रथम ज्ञात तिथि ९६ गुप्त संवत् तथा अन्तिम १३६ गुप्त संवत् है। यदि गुप्त संवत् का प्रारम्भ ३१९ ईस्वी माना जाय तो तदनुसार कुमारगुप्त का शासन-काल ४१४-४५५ ईस्वी पड़ेगा। इस प्रकार मन्दसोर लेख उसके शासन काल के अन्तर्गत पड़ेगा। इसके विपरीत इस संवत् की प्रारम्भिक तिथि २०० या २७२ मानने पर मन्दसौर लेख उसके राज्यकाल के बाहर पड़ता है। — मंदसौर अभिलेख
- शशांक के गन्जाम लेख की तिथि गुप्त संवत् ३०० है। वह हर्षवर्धन का समकालीन था। गुप्त संवत् के प्रचलन की तिथि ३१९ ईस्वी मानने पर गन्जाम लेख ६१९ ईस्वी का ठहरता है। इस प्रकार शशांक हर्ष (६०६-६४७ ईस्वी) का समकालीन सिद्ध होता है।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय की शासनावधि (गुप्त-संवत् का प्रचलन ३१९ ईस्वी में मानने से) ३७५ ईस्वी से ४१४ ईस्वी पड़ती है। उसने शकों का उन्मूलन किया था। शकों की अन्तिम तिथि ३०४ है जो उनके सिक्कों पर अंकित है। यह शक संवत् की तिथि है जो ३८२ ईस्वी (३०४ + ७८) हुई। इस प्रकार यह चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में पड़ती है।
अतः यह कहा जा सकता है कि गुप्त संवत् का प्रारम्भ ३१९ ईस्वी में ही हुआ था। इसकी पुष्टि अल्बरूनी के इस कथन से भी होती है कि गुप्त संवत् तथा शक संवत् के बीत २४१ (२४१ + ७८ = ३१९) वर्षों का अन्तर था।
चन्द्रगुप्त प्रथम ने लगभग ३१९ ईस्वी से ३३५ ईस्वी तक शासन किया। उसने अपने जीवन काल में ही अपने सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी निर्वाचित कर दिया। निःसन्देह वह अपने वंश का प्रथम महान् शासक था। कुछ विद्वानों का तो यहाँ तक विचार है कि वह अपने वंश की स्वतन्त्रता का जन्मदाता था और उसी के काल में गुप्त लोग सामन्त स्थिति से सार्वभौम स्थिति में आये। वास्तविकता जो भी हो, हम चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मान सकते हैं।
सिक्के — राजा-रानी प्रकार

चन्द्रगुप्त-कुमारदेवी प्रकार के सिक्कों को राजा-रानी प्रकार, विवाह प्रकार अथवा लिच्छवि प्रकार भी कहा जाता है।
इस प्रकार के लगभग २५-२६ सिक्के प्रकाश में आ चुके हैं। इनका विवरण इस प्रकार है—
- मुख भाग (Obverse)— चन्द्रगुप्त तथा कुमारदेवी की आकृति उनके नामों सहित अंकित है। रानी राजा को अँगूठी, सिन्दूरदानी अथवा कंकण जैसी कोई वस्तु समर्पित कर रही है।
- पृष्ठ भाग (Reverse)— सिंहवाहिनी देवी (दुर्गा) की आकृति तथा ब्राह्मी लिपि में मुद्रालेख ‘लिच्छवयः’ उत्कीर्ण है।
इस सिक्कों के प्रचलनकर्ता के विषय में मतभेद है। एलन महोदय इन सिक्कों को स्मारक सिक्के (commemorative-coins) मानते हुये इनके प्रचलन का श्रेय समुद्रगुप्त को प्रदान करते हैं जिसने माता-पिता के विवाह की स्मृति में इन सिक्कों को ढलवाया था।
परन्तु यह मत तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि इस स्थिति में इन पर समुद्रगुप्त का नाम उत्कीर्ण होना अनिवार्य होता।
अल्टेकर का विचार है कि कुमारदेवी लिच्छवि राज्य की शासिका थी तथा इन मुद्राओं के ऊपर लिच्छवियों का अंकन उनके आग्रह से ही किया गया था।
“Kumaradevi was queen by her own right and the proud Lichchhavis, to whose stock she belonged, must have been Anxious to retain their individuality in the new imperial State.” — The Vakataka-Gupta Age, p. 118.
ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तक लिच्छवियों ने गणतन्त्रात्मक व्यवस्था का परित्याग कर राजतन्त्रात्मक व्यवस्था को ग्रहण कर लिया था तथा कुमारदेवी अपने पिता को अकेली सन्तान होने के कारण राज्य की उत्तराधिकारिणी बन गयी थी। यही कारण था कि उसके साथ विवाह कर लेने से चन्द्रगुप्त को लिच्छवि राज्य प्राप्त हो गया। संभव है कुछ समय तक चन्द्रगुप्त तथा कुमारदेवी दोनों ने साथ-साथ शासन किया हो तथा इस प्रकार की मुद्रायें गुप्त तथा लिच्छवि दोनों ही राज्यों में प्रचलित करवाने के निमित्त ढलवायी गयी हों।
लिच्छवि लोग बड़े ही स्वाभिमानी तथा स्वाधीनता-प्रेमी थे। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द्रगुप्त के समय तक उनके राज्य का स्वतन्त्र अस्तित्व किसी न किसी रूप में बना रहा तथा समुद्रगुप्त के ही काल में उसका अस्तित्व समाप्त हुआ होगा क्योंकि वह दोनों राज्यों (गुप्त तथा लिच्छवि) का वैधानिक उत्तराधिकारी था। मनुस्मृति में स्पष्टतः कहा गया है कि ‘पुत्री का पुत्र’ (दौहित्र) अपने पिता तथा नाना (यदि वह पुत्र विहीन हो) दोनों की ही सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होता है।
वासुदेव शरण अग्रवाल का विचार है कि राजा-रानी प्रकार के सिक्के वस्तुतः लिच्छवियों के हैं जिन्हें उन्होंने अपनी राजकुमारी के विवाह की स्मृति में खुदवाया था।
इस प्रकार इन सिक्कों के प्रचलनकर्ता के विषय में बहुत विवाद है जिसके फलस्वरूप हम किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते। इन मुद्राओं को देखने से इतना तो स्पष्ट है कि इनके ऊपर लिच्छवि-प्रभाव अधिक है। उल्लेखनीय है कि मुख भाग पर चन्द्रगुप्त का नाम बिना किसी सम्मान सूचक शब्द के साथ अंकित है जबकि कुमारदेवी के नाम के पूर्व ‘श्री’ शब्द जुड़ा मिलता है। पुनश्च पृष्ठ भाग में केवल ‘लिच्छवयः’ ही उत्कीर्ण है जबकि गुप्तों का उल्लेख तक नहीं मिलता। लगता है कि यह सब इन सिक्कों के लिच्छवियों से सम्बन्धित होने के कारण ही हुआ है।
FAQs
चंद्रगुप्त प्रथम की उपलब्धियों पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
(Comment briefly on the achievements of Chandragupta I.)
(Comment briefly on the achievements of Chandragupta I.)
- चंद्रगुप्त प्रथम गुप्त साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक थे।
- अपने पूर्ववर्ती शासकों के विपरीत चंद्रगुप्त प्रथम ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की जो उसके स्वतंत्र स्थिति को दर्शाता है।
- वह ‘गुप्त सम्वत्’ (३१९ ई०) का प्रचलनकर्ता था।
- लिच्छवि राजकुमारी ‘कुमारदेवी’ से विवाह उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी।
- उसने राजा-रानी प्रकार या लिच्छवि प्रकार के सिक्के प्रचलित करवाये।
- उसका एक रजत सिक्का मिला है। यदि यह स्वीकार किया जाए तो गुप्त वंश में चाँदी के सिक्के का प्रचलनकर्ता चंद्रगुप्त प्रथम को मानना होगा, न कि चंद्रगुप्त द्वितीय को, जैसाकि अबतक माना जाता रहा है।
- उसका शासनकाल लगभग ३१९ से ३३५ ई० तक रहा।
- उसका राज्य-क्षेत्र मोटे-तौर पर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ था।
- उसका उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त हुआ।
चंद्रगुप्त प्रथम और कुमारदेवी के विवाह के महत्त्व पर टिप्पणी लिखिए। या गुप्त-लिच्छवि वैवाहिक सम्बन्ध के राजनीतिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए।
(Write a note on the significance of the marriage between Chandragupta I and Kumaradevi. Or evaluate the political significance of the Gupta-Lichchhavi marital alliance.)
(Write a note on the significance of the marriage between Chandragupta I and Kumaradevi. Or evaluate the political significance of the Gupta-Lichchhavi marital alliance.)
चंद्रगुप्त प्रथम और कुमारदेवी के बीच वैवाहिक सम्बन्ध गुप्त साम्राज्य के विस्तार और सुदृढ़ीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह कर उनका सहयोग प्राप्त किया। इस विवाह को प्रमाणित करने वाले दो प्रकार के साक्ष्य हैं—
- चंद्रगुप्त-कुमारदेवी प्रकार के स्वर्ण सिक्के। इनपर दोनों की आकृतियाँ और “लिच्छवयः” अंकित है।
- प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को “लिच्छवि दौहित्र” कहा गया है।
इस वैवाहिक राजनय के अधोलिखित लाभ हुए—
- गुप्तों को लिच्छवियों की राजनीतिक और आर्थिक शक्ति सहयोग मिला।
- वैशाली का समृद्ध राज्य, गंगा नदी के व्यापार पर नियंत्रण और रत्नों की खानें गुप्त शासन में शामिल हुईं।
- यह वैवाहिक संबंध गुप्त और लिच्छवि राज्यों का राजनीतिक एकीकरण था, जिससे गुप्त साम्राज्य की नींव मजबूत हुई।
- इस सम्बन्ध से गुप्तों की सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ी। समुद्रगुप्त स्वयं को ‘लिच्छवि दौहित्र’ कहकर गौरवान्वित महसूस करता है।
- राज्यक्षेत्र का विस्तार हुआ।
- चंद्रगुप्त प्रथम ने इसी समय “महाराजाधिराज” की उपाधि ग्रहण की।
इस वैवाहिक सम्बन्ध के ऊपर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी ने लिखा है ‘अपने महान् पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की।’
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