गुप्त साम्राज्य का पतन | गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण

भूमिका

दो शताब्दियों के निरन्तर उत्थान के पश्चात् शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य का छठी शताब्दी के मध्य तक पतन होना एक युगान्तरकारी ऐतिहासिक घटना है। गुप्त साम्राज्य इस वंश के अन्तिम महान् शासक स्कन्दगुप्त की ४६७ ईस्वी में मृत्यु के पश्चात् पतन की दिशा में तेजी से उन्मुख हुआ। यद्यपि स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारियों ने किसी न किसी रूप में ५५० ईस्वी तक मगध पर अधिकार रख सकने में सफलता प्राप्त की, परन्तु इसके पश्चात् भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वर्ण युग का दावेदार गुप्त साम्राज्य सदा के लिये तिरोहित हो गया। गुप्त साम्राज्य का पतन किसी कारण विशेष से नहीं हुआ, वरन् विभिन्न कारणों ने गुप्त साम्राज्य के अवसान में योगदान दिया।

गुप्त साम्राज्य का पतन — कारण

सामान्य तौर से हम इस साम्राज्य के पतन के लिये निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी मान सकते हैं—

  1. १. अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी।
  2. २. शासन-व्यवस्था का संघात्मक स्वरूप।
  3. ३. उच्च पदों का आनुवंशिक होना।
  4. ४. एक ही व्यक्ति के पास कई पद होना।
  5. ५. आर्थिक कारण।
  6. ६. सैन्य कारण।
  7. ७. प्रान्तीय शासकों के विशेषाधिकार।
  8. ८. प्रान्तीय पदाधिकारियों की नियुक्ति।
  9. ९. बाह्य आक्रमण।
  10. १०. बौद्ध धर्म का प्रभाव।
  11. ११. साम्राज्य का विभाजन।
  12. १२. नवीन शक्तियों का उद्भव।
गुप्त साम्राज्य का पतन

अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी

गुप्त साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण यह था कि स्कन्दगुप्त के बाद शासन करने वाले राजाओं में योग्यता एवं कुशलता का अभाव था। गुप्त वंश के प्रारम्भिक नरेश अत्यन्त योग्य एवं शक्तिशाली थे—

  • समुद्रगुप्त का उद्देश्य “धरणिबन्ध” था।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ का उद्देश्य “कृत्स्नपृथ्वीजय” था।
  • कुमारगुप्त प्रथम भी इतना योग्य था कि उसने विशाल साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखा।
  • स्कन्दगुप्त एक वीर एवं पराक्रमी योद्धा था जिसने पुष्यमित्र एवं हूण जैसे भयानक शत्रुओं को परास्त किया।

परन्तु स्कन्दगुप्त के बाद के गुप्त राजाओं में वीरता एवं कार्य-कुशलता नहीं थी। गुप्त राजकुमारों में आपसी वैमनस्य एवं विद्वेष-भाव था। कुछ राजकुमारों ने विभिन्न भागों में अपनी स्वतन्त्र सत्ता भी कायम कर ली। तत्कालीन विक्षुब्ध राजनीतिक वातावरण सम्राट की वीरता, पराक्रम एवं कार्य-कुशलता की अपेक्षा करता था। परन्तु गुप्त शासकों में इन गुणों का अभाव था। अतः साम्राज्य का विघटन अवश्यंभावी था।

शासन-व्यवस्था का संघात्मक स्वरूप

गुप्त प्रशासन का स्वरूप संघात्मक था। साम्राज्य में अनेक सामन्ती प्रशासनिक इकाइयाँ थीं। गुप्तकाल के सामन्तों में मौखरि, उत्तर गुप्त, परिव्राजक, सनकानीक, वर्मन, मैत्रक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन वंशों के शासक “महाराज” की उपाधि ग्रहण करते थे।

स्थानीय राजाओं तथा गणराज्यों को स्वतन्त्रता दी गयी थी। गुप्त शासक अनेक ‘छोटे राजाओं का राजा’ होता था। सामन्त एवं प्रान्तीय शासक अपने-अपने क्षेत्रों में पर्याप्त स्वतन्त्रता का अनुभव करते थे।

प्रशासन की यह सामन्ती व्यवस्था कालान्तर में साम्राज्य की स्थिरता के लिये हानिकारक सिद्ध हुई। जब तक केन्द्रीय शासक शक्तिशाली रहे तब तक वे नियन्त्रण में रहे। परन्तु केन्द्रीय शक्ति के निर्बल होने पर अधीन राजाओं ने स्वतन्त्रता घोषित कर दी जिसके फलस्वरूप गुप्त-साम्राज्य का अवसान हुआ।

उच्च पदों का आनुवंशिक होना

गुप्त प्रशासन में सभी ऊँचे-ऊँचे पद वंशानुगत (Hereditary) होते थे।

हरिषेण जो एक महादण्डनायक था। उसका पिता ध्रुवभूति भी इसी पद (महादण्डनायक) पर कार्य कर चुका था।

“खाद्यटपाकिकस्य महादण्डनायक-ध्रुवभूति पुत्रस्य सान्धिविग्रहिक कुमारामात्य-म[हादण्डनाय]क- हरिषेणस्य सर्व्व-भूत-हित-सुखायास्तु।”

—पंक्ति संख्या- ३२; प्रयाग प्रशस्ति

चन्द्रगुप्त द्वितीय के सचिव वीरसेन के उदयगिरि गुहालेख से ज्ञात होता है कि वह आनुवंशिक रूप से अपने पद का उपभोग कर रहा था।

“तस्य राजाधिराजर्षेरचि [ न्त्यो ] [ ज्ज्वल -क ] [ र्म्म ] णः [ । ] अन्वय-प्राप्त-सा-चिव्यो व्या [ पृत – सान्धि – वि ] ग्रहेः [ ॥ ]

कौत्सश्शवाब इति ख्यातो वीरसेनः कुलाख्यया [ । ]”

—पंक्ति संख्या- ३, ४; उदयगिरि गुहालेख

करमदण्डा लेख से पता चलता है कि कुमारगुप्त का एक मंत्री पृथिवीषेण भी अपने पिता कुमारामात्य शिखरस्वामी के बाद इस पद पर नियुक्त हुआ था।

“महारा-

जाधिराज श्रीचन्द्रगुप्तस्य मन्त्रि कुमारामात्यश्शिखरस्वाम्यभूत्तस्य पुत्रः

पृथिवीषेणो महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्य मन्त्रि कुमारामात्यो(ऽ)न-

न्तरं च महाबलाधिकृतः”

—पंक्ति संख्या- ५, ६, ७, ८; करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख

पुण्ड्रवर्धन भुक्ति में दत्त परिवार (चिरादत्त, ब्रह्मदत्त) आनुवंशिक रूप से शासन कर रहा था।

ऐसी व्यवस्था के फलस्वरूप कभी-कभी अयोग्य व्यक्ति भी इन पदों पर नियुक्त हो जाते थे जिससे शासन-तन्त्र में शिथिलता आ जाती थी। ऐसे पदाधिकारियों की सफलता पूर्णतया सम्राट पर निर्भर करती थी। ऐसे समय में जब गुप्त प्रशासन निर्बल व्यक्तियों के हाथ में था तब ये पदाधिकारी अवश्य ही राज्य की एकता और स्थायित्व के लिये घातक सिद्ध हुए होंगे।

एक ही व्यक्ति के पास कई पद होना

गुप्त प्रशासन में हम पाते हैं कि एक ही व्यक्ति एक साथ कई पद धारण किये हुए होते थे।

  • समुद्रगुप्त के शासनकाल में हरिषेण एक साथ तीन पद धारण किये हुए था— सान्धिविग्रहिक, महादण्डनायक और कुमारामात्य— प्रयाग प्रशस्ति
  • कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में पृथिवीषेण एक साथ कई पद धारण किये हुए था— सचिव, कुमारामात्य और महाबलाधिकृत— करमदण्डा शिवलिंग अभिलेख
  • हम पिता-पुत्र को दो पदों पर एक ही समय पर शासन करता हुआ भी पाते हैं— स्कन्दगुप्त के शासनकाल में पर्णदत्त (पिता) सौराष्ट्र का राज्यपाल था और चक्रपालित (पुत्र) सौराष्ट्र की राजधानी गिरनार का नगर प्रशासक— स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख

इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही व्यक्तियों के हाथ में अधिकारों का केंद्रण होता चला गया। जब तक गुप्त सम्राट योग्य और सक्षम रहे तब तक यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रही, परन्तु अयोग्य और निर्बल शासकों के समय इन पदाधिकारियों ने साम्राज्य के हितों के विपरीत कार्य करके साम्राज्य के पतन में योग ही दिया।

प्रान्तीय शासकों के विशेषाधिकार

गुप्त शासन में प्रान्तीय शासकों एवं सामन्तों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे। अपने-अपने प्रदेशों में वे सम्राट के समान ही सुख-सुविधाओं का उपभोग करते थे; जैसे—

  • वे “महाराज” की उपाधि धारण करते थे।
  • सामन्तों को सेना रखने का अधिकार था।
  • वे अपने अधिकार-क्षेत्र की जनता से कर वसूल करते थे।
  • गोप्ता अपने अधीन विभिन्न पदाधिकारियों की नियुक्ति कर सकते थे; जैसे— स्कन्दगुप्त ने बहुत सोच-विचार के बाद सौराष्ट्र प्रान्त का गोप्ता पर्णदत्त को नियुक्त किया। पर्णदत्त ने अपने पुत्र चक्रपालित को गिरनार का प्रशासक नियुक्त किया था। स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख

प्रान्तीय पदाधिकारियों की नियुक्ति

  • प्रान्तीय पदाधिकारियों की नियुक्ति स्वयं राज्यपाल ही किया करता था तथा इस विषय में वह सम्राट से परामर्श नहीं करता था।
  • जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि उस प्रान्त के राज्यपाल पर्णदत्त ने अपने पुत्र चक्रपालित को गिरनार नगर का नगरपाल नियुक्त किया था।
  • इस व्यवस्था में कर्मचारियों की राजभक्ति प्रान्त के राज्यपाल के प्रति होती थी, न कि सम्राट के प्रति।
  • प्रान्तों में जूनागढ़ को विशेष स्थान प्राप्त था। वहाँ के राज्यपाल न तो अपने अभिलेखों में गुप्त संवत् का प्रयोग करते थे और न नियमित रूप से सम्राट का उल्लेख करते थे। वहाँ विद्रोह की आशंका सदैव बनी हुई थी। यही कारण था कि प्रान्तों में सर्वप्रथम जूनागढ़ ही स्वतन्त्र हुआ।
  • इसमें कोई आश्चर्य नहीं यदि गुप्त राज्यपालों ने प्रान्तों में अपना प्रभाव बढ़ाकर स्वतन्त्र होने की चेष्टा की हो।

आर्थिक कारण

हूणों की दो शाखाओं का विवरण प्राप्त होता है।

  • एक, पूर्वी शाखा
  • दो, पश्चिमी शाखा

हूणों की पश्चिमी शाखा पश्चिम की ओर गयी जिसने रोमन साम्राज्य को क्षति पहुँचायी। जबकि पश्चिमोत्तर से होकर पूर्वी शाखा ने भारत पर आक्रमण किया। स्कन्दगुप्त से परास्त होने के बाद हूण ससानियन साम्राज्य से उलझ गये। परन्तु गुप्त साम्राज्य की दुर्बलता का लाभ उठाकर स्कन्दगुप्त के बाद हूणों के निरन्तर आक्रमण होते रहे।

इन आक्रमणों के कारण व्यापारिक मार्ग अवरुद्ध होते चले गये। जिसका प्रभाव हम स्कन्दगुप्त के बाद के मिलावटी सिक्कों में देख सकते हैं। रोमन साम्राज्य से लाभकारी व्यापार जाता रहा। इसका प्रभाव निश्चय ही सैन्य व प्रशासनिक दुर्बलता के रूप में सामने आया।

इसके अतिरिक्त अग्रहार दान की प्रथा भी प्रचलित थी। इसके अनुसार सम्राट ब्राह्मणों को भूमि दान में देता था। इस प्रकार की भूमि से सम्बन्धित समस्त अधिकार भी दानग्राही व्यक्ति को मिल जाते थे। ऐसी भूमि में स्थित समस्त चरागाहों, खानों, निधियों, विष्टि (बेगार) आदि के ऊपर भी उनका अधिकार हो जाता था।

आर्थिक तथा राजनीतिक दोनों ही दृष्टि से यह व्यवस्था साम्राज्य के लिये घातक सिद्ध हुई। इससे एक ओर जहाँ राज्य की आय कम हुई वहीं दूसरी ओर दानग्राही व्यक्ति, छोटे-छोटे राजा बन बैठे।

सैनिक कारण

सबसे महत्त्व बात तो यह थी कि गुप्तों ने मौर्यों के समान स्वयं की स्थायी सेना का संगठन नहीं किया। सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वे सदैव अधीनस्थों पर आश्रित रहे। अतः उनके पास इतनी शक्ति नहीं थी कि वे विद्रोही सामंतों को दबा सकते। संकट की घड़ी में भी उन्हें पर्याप्त सैनिक सहायता प्राप्त नहीं हो सकी।

बाह्य आक्रमण

गुप्त साम्राज्य के पतन में बाह्य आक्रमणों का विशेष योगदान रहा। ऐसे आक्रमणों में हूणों का आक्रमण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। गुप्त शासकों का हूण संकट की ओर दृष्टिकोण बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं रहा।

स्कन्दगुप्त ने यद्यपि हूणों को परास्त किया था तथापि सिन्धु घाटी को जीतकर उत्तर-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करने का प्रयास नहीं किया। उसने केवल हूण संकट को कुछ समय के लिये टाल दिया।

बार-बार हूणों का आक्रमण होने के बावजूद भी गुप्त शासकों ने उन्हें रोकने के लिये कोई ठोस योजना नहीं बनायी। अतः गुप्त साम्राज्य में हूणों की घुसपैठ शुरू हो गयी।

एरण अभिलेख से पता चलता है कि हूण नरेश तोरमाण ने ५१० ईस्वी के बाद इस प्रदेश को जीतकर अधिकार में कर लिया था। और वहाँ धन्यविष्णु, जो गुप्तों के एरण के राज्यपाल मातृविष्णु का भाई था, ने तोरमाण की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल के काल में हूणों की शक्ति और अधिक बढ़ी। उसने नरसिंहगुप्त- बालादित्य पर आक्रमण किया, परन्तु वह पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया। नरसिंहगुप्त ने घोर अदूरदर्शिता का परिचय दिया और अपनी माता के कहने में आकर ऐसे भयंकर शत्रु को मुक्त कर दिया।

इस तरह हूणों के बार-बार आक्रमण से गुप्त साम्राज्य को बहुत बड़ा धक्का लगा।

बौद्ध धर्म का प्रभाव

प्रारम्भिक गुप्त नरेश वैष्णव धर्मानुयायी थे। वे चक्रवर्ती सम्राट बनने की आकांक्षा रखते थे। समुद्रगुप्त का आदर्श “धरणिबन्ध” तथा उसके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय का आदर्श “कृत्स्नपृथ्वीजय” था। परन्तु कुमारगुप्त प्रथम के समय से गुप्त परिवार पर बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ता गया।

बौद्ध धर्म का एक परिणाम यह निकला कि अब गुप्त-शासक पृथ्वी-विजय के स्थान पर पुण्यार्जन की चिन्ता में लग गये। उन्होंने अपने राज्य को चैत्यों और विहारों के सजाने में ही अपना गौरव माना। इससे उनकी युद्ध-प्रियता जाती रही।

छठी शताब्दी में हूण आक्रमण तथा आन्तरिक कलह ने गुप्त साम्राज्य की स्थिति को अत्यन्त डाँवाँडोल बना दिया था। ऐसे समय में शक्तिशाली सेना एवं सुदृढ़ शासन की महती आवश्यकता थी। परन्तु बुधगुप्त और नरसिंहगुप्त जैसे राजा बौद्धधर्म के प्रभाव में डूबे रहे।

हुएनसांग हमें बताता है कि जिस समय हूण नरेश मिहिरकुल ने बालादित्य (नरसिंहगुप्त) के ऊपर आक्रमण किया, उसने बिना युद्ध किये ही अपना राज्य छोड़ दिया किन्तु फिर भी जब उसके सैनिकों ने हूण नरेश को पराजित कर बन्दी बना लिया तब भी नरसिंहगुप्त ने बौद्धधर्म के प्रभाव में आकर मिहिरकुल को छोड़ दिया था।

इस प्रकार बौद्धों की अहिंसा नीति ने साम्राज्य की सैन्य शक्ति को कुण्ठित कर दिया जिसका विनाशकारी परिणाम साम्राज्य के पतन के रूप में सामने आया।

बौद्ध धर्म के प्रभाव से बौद्ध संस्थाओं एवं विहारों को अत्यधिक धन दान दिये जाने लगा। फलस्वरूप राजकोष रिक्त हुआ।

साम्राज्य का विभाजन

बुधगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य तीन भागों में विभाजित हो गया।

  • मालवा क्षेत्र
  • मगध क्षेत्र
  • पूर्वी क्षेत्र (बंगाल)

इससे साम्राज्य की शक्ति विभाजित हो गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि किसी शक्तिशाली केन्द्रीय शक्ति के अभाव में वे पश्चिमोत्तर से होने वाले बार-बार हूण आक्रमण का सामना करने में अक्षम होते गये। साथ ही आन्तरिक शक्तियाँ भी सिर उठाने लगी थीं, जिनको नियंत्रित करने में गुप्त शासक अक्षम सिद्ध हुए।

नवीन शक्तियों का उद्भव

इस समय भारतवर्ष में अनेक नयी-नयी शक्तियों का उदय हो रहा था—

  • थानेश्वर में वर्द्धन
  • कन्नौज में मौखरि
  • कामरूप में वर्मन
  • मालवा में औलिकरवंश

इनमें मालवा के औलिकरवंशी यशोधर्मन गुप्त साम्राज्य के लिये अत्यन्त घातक सिद्ध हुआ। उसने गुप्त साम्राज्य का अधिकांश भाग जीत लिया। इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी यशोधर्मन के पूर्वी भारत के अभियान को गुप्त-साम्राज्य के पतन का तात्कालिक कारण मानते हैं।

इस प्रकार इन सभी कारणों ने मिलकर गुप्त साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया था तथा अन्ततोगत्वा उसका पतन हो गया। गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों की समीक्षा करते हुये रमेशचन्द्र मजूमदार ने लिखा है “गुप्त साम्राज्य के पतन में उन्हीं परिस्थितियों का योगदान रहा जो इसके पहले मौर्य साम्राज्य को तथा बाद में मुगल साम्राज्य को धराशायी करने में सहायक रहीं।”

“The decline and downfall of the Gupta empire was brought about by the same causes which operated in the case of the Maurya empire in the older and the Mughal empire in later days.”

—The Vakataka-Gupta age, p. 200; R. C. Majumdar

निष्कर्ष

उपर्युक्त सभी कारण सामूहिक रूप से कमोबेश गुप्त साम्राज्य के अवसान के कारण थे। परन्तु यदि एक कारण का चुनाव करना हो तो स्कन्दगुप्त के बाद “अयोग्य व निर्बल उत्तराधिकारी” गुप्त साम्राज्य के पतन का सर्वप्रमुख कारण था।

गुप्त साम्राज्य का पतन प्राचीन भारतीय इतिहास की एक प्रमुख घटना थी। इसके साथ ही भारत का इतिहास विभाजन एवं विकेन्द्रीकरण की दिशा में उन्मुख हुआ।

FAQ

गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों की समालोचना करो।
(Analyse the causes of the downfall of the Gupta Empire.)

गुप्त साम्राज्य का पतन किसी कारण विशेष से नहीं हुआ, वरन् विभिन्न कारणों ने गुप्त साम्राज्य के अवसान में योगदान दिया। सामान्य तौर से हम इस साम्राज्य के पतन के लिये निम्नलिखित कारणों को उत्तरदायी मान सकते हैं—

  • अयोग्य तथा निर्बल उत्तराधिकारी।
  • शासन-व्यवस्था का संघात्मक स्वरूप।
  • उच्च पदों का आनुवंशिक होना।
  • एक ही व्यक्ति के पास कई पद होना।
  • आर्थिक कारण।
  • सैन्य कारण।
  • प्रान्तीय शासकों के विशेषाधिकार।
  • प्रान्तीय पदाधिकारियों की नियुक्ति।
  • बाह्य आक्रमण।
  • बौद्ध धर्म का प्रभाव।
  • साम्राज्य का विभाजन।
  • नवीन शक्तियों का उद्भव।

    उपर्युक्त सभी कारण सामूहिक रूप से कमोबेश गुप्त साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी थे। परन्तु यदि एक कारण का चुनाव करना हो तो “अयोग्य व निर्बल उत्तराधिकारी” गुप्त साम्राज्य के पतन का सर्वप्रमुख कारण था।

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