गुप्त इतिहास के साधन

गुप्त राजवंश का इतिहास हमें साहित्यिक तथा पुरातत्त्विक दोनों ही प्रमाणों से ज्ञात होता है।

साहित्यिक साधन

इसे हम दो भागों में बाँट सकते हैं— एक, स्वदेशी साहित्य और दूसरा, विदेशी साहित्य।

स्वदेशी साहित्यिक स्रोत

पुराणविष्णु पुराण, वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, भविष्योत्तर पुराण
स्मृतियाँनारद स्मृति, पाराशर स्मृति, वृहस्पति स्मृति
राजनीतिक पुस्तककामंदकीय नीतिसार
विशाखदत्तदेवीचन्द्रगुप्तम्
शूद्रकमृच्छकटिक
वात्स्यायनकामसूत्र
विज्जिका / किशोरिकाकौमुदी महोत्सव
कालिदासरघुवंश, कुमारसंभवम्, ऋतुसंहार, मेघदूत, मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीय और अभिज्ञानशाकुन्तलम्
बौद्ध ग्रंथमंजुश्रीमूलकल्प
जिनसेन सूरी, जैन ग्रंथहरिवंश पुराण
प्रवरसेन द्वितीयसेतुबंध
क्षेमेंद्रऔचित्य-विचार-चर्चा
?कुंतलेश्वर दौत्यम्
भोजशृंगार प्रकाश
बौद्ध ग्रंथचंद्रगर्भ-परिपृच्छा
बाणभट्टहर्षचरित
चक्रपाणि दत्तआयुर्वेद-दीपिका टीका
सोमदेवकथासरित्सागर
राजशेखरकाव्य मीमांसा

साहित्यिक साधनों में पुराण सर्वप्रथम है। पुराणों में विष्णु, वायु तथा ब्रह्माण्ड पुराणों को हम गुप्त-इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक मान सकते है। इनसे गुप्तवंश के प्रारम्भिक इतिहास का कुछ ज्ञान प्राप्त होता है। पुराणों से हमें ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त प्रथम का शासन प्रयाग, साकेत और मगध पर था। पुराणों से समुद्रगुप्त के समकालीन नागों, वाकाटकों और शकों के सम्बन्ध में भी ज्ञान प्राप्त होता है। भविष्योत्तर पुराण से गुप्त इतिहास की जानकारी में वृद्धि होती है। इसमें श्रीगुप्त से लेकर कुमारगुप्त द्वितीय तक के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का विवरण प्राप्त होता है।

धर्मशास्त्रों और स्मृतियों से गुप्तकालीन समाजिक नियमों व संरचना का ज्ञान प्रप्त होता है। गुप्तकाल में अनेक स्मृतियों का संकलन किया गया। इन स्मृतिकारों ने प्राक्-गुप्तकाल की अवस्था को ध्यान में रखते हुए समयानुकूल नये नियमों व विधानों का प्रावधान किया गया और पूर्ववत् नियमों व विधानों का परिष्कार किया गया। इन स्मृतियों में प्रमुख हैं— नारद स्मृति, पाराशर स्मृति, वृहस्पति स्मृति इत्यादि।

गुप्तकालीन रचना कामन्दकीय नीतिसार का उद्देश्य और विषयवस्तु बहुत कुछ कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र से मिलता-जुलता है। इसमें राजा को सुचारु रूप से शासन चलाने की सीख दी गयी है। इससे गुप्तकालीन प्रशासन पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

काव्य और नाटक साहित्य से भी गुप्तकालीन इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति की अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। इसमें प्रमुख हैं—

विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस और देवीचंद्रगुप्तम्। देवीचंद्रगुप्तम् एवं मुद्राराक्षस दोनों ऐतिहासिक नाटक हैं। देवीचंद्रगुप्तम् में चंद्रगुप्त द्वितीय एवं शकों के साथ सम्बन्धों की चर्चा की गयी है। इसमें रामगुप्त एवं ध्रुवस्वामिनी का भी उल्लेख प्राप्त होता है। मुद्राराक्षस नाटक में कूटनीति का अच्छा वर्णन है। दीक्षितार के अनुसार इस नाटक में मौर्य-राजनीति की आड़ में गुप्तवंश के पुनर्स्थापना की समसामयिक कहानी का विवरण किया गया है।

शूद्रक कृत मृच्छकटिक। नाटक। शूद्रक की मृच्छकटिकम् तत्कालीन सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रकाश डालती है।

वात्स्यायन कृत कामसूत्र। कामसूत्र से नागरिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है।

वसुबंधु का जीवन वृत्तांत से भी गुप्तकाल के इतिहास निर्माण में सहायता प्राप्त होती है।

कौमुदी महोत्सव की लेखिका विज्जिका (किशोरिका या जयभट्टारिका या विजयाम्बिका) हैं। इस नाटक में मगध के शासक सुंदरवर्मन एवं चंद्रसेन (चंद्रगुप्त प्रथम) के संबंधों की चर्चा की गयी है। इस नाटक से गुप्तों की उत्पत्ति एवं उनके उत्कर्ष पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

कालिदास की रचनाएँ। कालिदास की रचनाएँ तो गुप्तकाल के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। यद्यपि इनसे राजनीतिक इतिहास की जानकारी कम ही मिलती है, तथापि सांस्कृतिक अध्ययन के लिए इनका विशेष महत्त्व है। कालिदास चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ के नौ रत्नों में एक थे। कालिदास को सात रचनाओं का श्रेय प्राप्त है— रघुवंश, कुमारसंभवम्, ऋतुसंहार, मेघदूत, मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीय और अभिज्ञानशाकुन्तलम्। इसमें प्रथम दो महाकाव्य, दो खण्डकाव्य और अंतिम तीन नाटक हैं। अपनी रचनाओं में कालिदास ने तत्कालीन सभ्यता एवं संस्कृति का सजीव वर्णन किया है।

बौद्ध और जैन साहित्य भी गुप्तकालीन इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। बौद्ध ग्रंथों में सबसे प्रमुख मंजुश्रीमूलकल्प है। यह संस्कृत में लिखित महायान बौद्धग्रंथ है। इसमें ईसा की आरंभिक शताब्दी से लेकर पालयुगीन इतिहास की झलक मिलती है। गुप्त इतिहास का भी इसमें उल्लेख मिलता है। इसमें अनेक गुप्त शासकों का उल्लेख किया गया है; यथा—समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’, कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त आदि।

जैन ग्रंथ हरिवंशपुराण के रचनाकार जिनसेन सूरी हैं। इस ग्रंथ में महावीर स्वामी के निर्वाण और कल्कि के बीच के एक हजार वर्ष में अवन्ति के आसपास के शासकों और राजवंशों की चर्चा की है। इससे गुप्तों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इसमें कहा गया है कि २३१ वर्षों तक गुप्तों का शासन रहेगा। गुप्तवंश के अंतिम शासक विष्णुगुप्त की तिथि गुप्त संवत् २२४ है जो जिनसेन की २३१ वर्षों के शासन से मिलती-जुलती है। यति वृषाभाचार्य कृत तिलोयपण्णति नामक जैन ग्रंथ में भी गुप्तों का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार गुप्तों ने २५५ वर्षों तक शासन किया।

सेतुबंध महाकाव्य के रचनाकार वाकाटक वंश के शासक प्रवरसेन द्वितीय ने की है।

काश्मीर के कवि क्षेमेंद्र कृत ‘औचित्य-विचार-चर्चा’ के अनुसार ‘कुंतलेश्वर दौत्यम्’ नामक नाटक की रचना कालिदास ने की थी। इस तरह कुंतलेश्वर दौत्यम् (कालिदास), औचित्य-विचार-चर्चा (क्षेमेन्द्र) और शृंगार प्रकाश (भोज) चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा कुन्तल नरेश की राजसभा में कालिदास को अपना राजदूत बनाकर भेजने की जानकारी मिलती है।

इन प्रमुख ग्रंथों के अतिरिक्त कृष्णचरित, काव्यालंकार-सूत्र-वृति, हर्षचरित (बाणभट्ट), काव्यमीमांसा (राजशेखर), आयुर्वेद-दीपिका टीका (चक्रपाणि दत्त), चंद्रगर्भ-परिपृच्छा (बौद्ध ग्रंथ), कथासरित्सागर (सोमदेव) से भी गुप्तों के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है।

उपर्युक्त वर्णित साहित्यिक ग्रंथों से गुप्तकालीन इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति की अच्छी जानकारी मिलती है।

विदेशी साहित्यिक स्रोत

गुप्तकाल के इतिहास की जानकारी के लिए विदेशी यात्रियों के यात्रा-विवरण भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं। यद्यपि इनसे राजनीतिक इतिहास पर ज्यादा प्रकाश नहीं पड़ता है, तथापि धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक अवस्था का इन विवरणों में बड़ा ही अच्छा चित्रण किया गया है।

कुषाणों के प्रयत्नों से बौद्ध धर्म का विदेशों में अच्छा प्रचार-प्रसार हो चुका था। फलतः अनेक चीनी यात्री भगवान बुद्ध की चरण रज से पवित्र भूमि के दर्शन और में ज्ञान की खोज में भारत आये। इसमें प्रमुख हैं— फाहियान, ह्वेनसांग, इत्सिंग इत्यादि।

उनके ग्रंथों में भी यदा-कदा गुप्तकालीन सभ्यता एवं संस्कृति की झाँकी मिलती है।

फाहियान

ऐसे चीनी यात्रियों में पहला यात्री फाहियान था। फाहियान गुप्तनरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय (३७५-४१५ ईस्वी) के शासन काल में भारत आया था। उसने मध्य देश की जनता का वर्णन किया है। फाहियान कृत ‘फो-क्वो-की’ (Fo-Kwo-Ki) नाम से उपलब्ध है। इसका James Hegge द्वारा अँग्रेजी में अनुवाद ‘A travel of Buddhist Kingdoms’  नाम से किया गया है।

फाहियानफो-क्वो-की (Fo-Kwo-Ki)
ह्वेनसांगसी-यू-की (Si-Yu-Ki)
इत्सिंगकाउ-फा-काओ-सांग चुन
वांग-ह्वेन-त्सेफा-युआन चु-लिन
अबुल हसन अलीमजमल-उत्-तवारीख
अलबेरुनीतहकीक-उल-हिंद

ह्वेनसांग

सातवीं शती के चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से भी गुप्त इतिहास के विषय में कुछ सूचनायें मिलती है। हुएनसांग की कृति ‘सी-यू-की’ (Si-Yu-Ki) है। इसका अनुवाद Samuel Bual द्वारा अँग्रेजी भाषा में Buddhist Records of the Western World नाम से किया है। इसमें कुमारगुप्त प्रथम (शक्रादित्य), बुधगुप्त, बालादित्य आदि गुप्त शासकों का उल्लेख मिलता है। उसके विवरण से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त ने ही नालन्दा महाविहार की स्थापना करवायी थी। वह ‘बालादित्य’ को हुण नरेश मिहिरकुल का विजेता बताता है। इसको पहचान नरसिंह गुप्त बालादित्य से की जाती है।

इत्सिंग

इत्सिंग की पुस्तक ‘काउ-फा-काओ-सांग’ चुन में दिये गये विवरणों से गुप्तों के समय की कुछ जानकारी मिलती है। इस पुस्तक का अनुवाद J. Takaksu ने अँग्रेजी भाषा में A records of the Buddhist Religion as Practiced in India and Malay Archipelago नाम से किया है।

इसी प्रकार वांग-ह्वेन-त्से के संस्मरण ‘फा-युआन चु-लिन’ से भी गुप्तकाल के सम्बन्ध में कुछ जानकारी मिलती है।

अबुल हसन अली द्वारा फारसी में लिखा हुआ ‘मजमल-उत्-तवारीख‘ तथा अलबेरुनी की कृत ‘तहकीक-उल-हिंद’ से भी गुप्तकालीन कुछ जानकारियाँ मिलती हैं। मजमल-उत-तवारीख १३वीं शताब्दी की रचना है। इसमें दी गयी रवाल और बर्कमारीस की कहानी को अल्टेकर महोदय रामगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय की कहानी मानते हैं। अलबेरूनी ने गुप्त संवत् और उसके आरंभ के संबंध में कुछ प्रकाश डाला है।

इस प्रकार साहित्यिक साधन गुप्त-कालीन इतिहास की जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत बन जाते हैं।

पुरातत्त्विक साधन

साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त पुरातत्त्विक प्रमाणों से भी हमें गुप्त राजवंश के इतिहास के पुनर्निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है। इनका वर्गीकरण तीन भागों में किया जा सकता है— (1) अभिलेख, (2) सिक्के तथा (3) स्मारक।

इनका संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है—

अभिलेख

पुरातात्त्विक साधनों में सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान अभिलेखों का है। गुप्तकालीन अभिलेख शिला, स्तंभ एवं ताम्रपत्रों पर अंकित हैं। एक अभिलेख लौह स्तंभ (मेहरौली लौह स्तंभ अभिलेख) पर भी मिला है। मुहरों एवं मुद्राओं पर उत्कीर्ण अभिलेख भी गुप्तकालीन इतिहास इतिहास निर्माण में सहायता मिलती है।

इन अभिलेखों से गुप्त-शासकों की वंशावली, उनके कृत्यों, उनकी दानशीलता एवं राजनीतिक निपुणता का पता चलता है। सरकारी अधिकारियों एवं प्रशासनिक व्यवस्था की भी जानकारी अभिलेखों से मिलती है। गुप्तकालीन अभिलेख सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था की भी जानकारी देते हैं।

कुछ अभिलेख मिले हैं जो गुप्त सम्राटों और उनके काल से संबद्ध हैं। ये अभिलेख निजी दानपत्र, राजशासन और प्रशस्ति के रूप में हैं।

गुप्त सम्राज्य से सम्बन्धित बहुत सारे अभिलेख (लगभग ६१ से अधिक) प्राप्त होते हैं। ये अभिलेख निजी दानपत्र, राजशासन और प्रशस्ति के रूप में हैं।

  • समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति — इससे समुद्रगुप्त के राज्याभिषेक, दिग्विजय तथा उसके व्यक्तित्व पर विशद प्रकाश पड़ता है। इसके रचयिता हरिषेण हैं। मूलतः यह प्रशस्ति अशोक के स्तम्भ पर कौशाम्बी में अंकित करायी गयी थी परन्तु वर्तमान में यह स्तम्भ प्रयागराज के त्रिवेणी संगम पर स्थित अकबर के क़िले में स्थापित है।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि गुहालेख से उसकी दिग्विजय की सूचना प्राप्त होती है।
  • कुमारगुप्त प्रथम के समय के लेख उत्तरी बंगाल से मिलते हैं जो इस बात का सूचक है कि इस समय तक सम्पूर्ण बंगाल का भाग गुप्त साम्राज्य का अंग था। — दामोदरपुर ताम्रलेख
  • स्कन्दगुप्त के भीतरी स्तम्भ-लेख से हुण आक्रमण की सूचना मिलती है। इसी सम्राट के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने इतिहास-प्रसिद्ध सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया था।
  • इसके अतिरिक्त और भी अनेक अभिलेख एवं दानपत्र मिले हैं जिनसे गुप्त काल की अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है। उदाहरण के लिये भानुगुप्त का एरण अभिलेख सती प्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

इन अभिलेखों के विस्तृत विवरण के लिये अधोलिखित लिंक पर पर जाकर पढ़ सकते हैं—

गुप्तकालीन अभिलेख और मुद्रालेख (मुहरें)
समुद्रगुप्तनालंदा ताम्र-लेख
गया ताम्र-लेख
प्रयाग प्रशस्ति
प्रशस्ति
रामगुप्तविदिशा जैन मूर्ति अभिलेख
चन्द्रगुप्त द्वितीयमथुरा स्तम्भ लेख
उदयगिरि गुहालेख (प्रथम)
उदयगिरि गुहालेख (द्वितीय)
साँची अभिलेख
मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख
हुंजा काँठे के लघु शैल लेख
मथुरा खंडित लेख
ध्रुवस्वामिनी का मुद्राभिलेख
गोविन्दगुप्तमन्दसौर अभिलेख
कुमारगुप्त प्रथमबिलसड स्तम्भ लेख
गढ़वा अभिलेख
उदयगिरि गुहाभिलेख (तृतीय)
मथुरा जैन मूर्ति लेख
धनैदह ताम्र-लेख
गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख
तुमैन अभिलेख
मन्दसौर अभिलेख
करमदंडा लिंग-लेख
कुलाईकुरै ताम्र-लेख
दामोदरपुर ताम्र-लेख (प्रथम)
मथुरा बुद्ध मूर्ति पीठ लेख
दामोदरपुर ताम्र-लेख (द्वितीय)
बैग्राम ताम्र-लेख
जगदीशपुर ताम्र-लेख
मनकुँवर बुद्ध प्रतिमा लेख
साँची प्रस्तर लेख
मथुरा मूर्ति लेख
स्कंदगुप्तजूनागढ़ अभिलेख
कहौम स्तम्भ लेख
सुपिया स्तम्भ लेख
इंदौर ताम्र-लेख
गढ़वा अभिलेख (पंचम)
भीतरी प्रशस्ति
कुमारगुप्त द्वितीयसारनाथ बुद्ध मूर्ति लेख
पुरुगुप्त-पुत्रबिहार स्तम्भ लेख
बुधगुप्तसारनाथ बुद्ध मूर्ति लेख
पहाड़पुर ताम्र-लेख
राजघाट स्तम्भ लेख
मथुरा पादासन लेख
दामोदरपुर ताम्र-लेख (तृतीय)
एरण स्तम्भ लेख
शंकरगढ़ ताम्र-लेख
नन्दपुर ताम्र-लेख
भीतरी शिला-पट्ट लेख
दामोदरपुर ताम्र-लेख (चतुर्थ)
नालंदा मुद्राभिलेख
वैन्यगुप्तगुनैधर ताम्र-लेख
नालंदा मुद्राभिलेख
भानुगुप्तएरण स्तम्भ लेख
नरसिंहगुप्तनालंदा मुद्राभिलेख
कुमारगुप्त तृतीयभीतरी और नालंदा मुद्राभिलेख
विष्णुगुप्तदामोदरपुर ताम्र-लेख (पंचम)
नालंदा मुद्राभिलेख
  • गुप्त अभिलेखों के अतिरिक्त समसामयिक नरेशों की प्रशस्तियों, उत्तर-गुप्तवंशी अभिलेखों और सामंतों के अभिलेख भी गुप्त-वंश के इतिहास की जानकारी के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। ऐसे अभिलेखों में यशोधर्मन, तोरमाण एवं मिहिरकुल के अभिलेखों का नाम लिया जा सकता है। इनसे गुप्तों-हूणों के संबंध की जानकारी मिलती है।
  • अन्य महत्त्वपूर्ण समसामयिक अभिलेखों में वाकाटकों, कदम्बों, वर्मनों, मैत्रकों तथा गोपचंद्र के अभिलेखों का उल्लेख किया जा सकता है।
  • राजनीतिक इतिहास के अतिरिक्त अभिलेखों से प्रशासनिक व्यवस्था का भी ज्ञान प्राप्त होता है। प्रयाग प्रशस्ति की २८वीं पंक्ति में समुद्रगुप्त को ‘लोक-धाम्नो देवस्य’ अर्थात पृथ्वी पर देवता कहा गया है। इससे स्पष्ट होता है कि इस युग में भी राजा की उत्पत्ति का दैवी-सिद्धांत लोकप्रिय था।
  • अभिलेखों से विभिन्न मंत्रियों, उनके विभागों, विभागाध्यक्षों, राजकीय पदाधिकारियों, करों के स्वरूप, प्रशासकीय इकाइयों, इत्यादि से संबद्ध महत्त्वपूर्ण जानकारी भी मिलती है।
  • सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था की जानकारी के लिए भी ये अभिलेख महत्त्वपूर्ण हैं। ‘वर्णव्यवस्था’ की चर्चा भी इन अभिलेखों में की गयी है। ‘द्विजों’ के अतिरिक्त ‘कायस्थों’ का भी उल्लेख हुआ है। ‘आश्रम व्यवस्था’ की जानकारी भी इनसे मिलती है। अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कृषि एवं व्यापार, आर्थिक अवस्था के आधार-स्तंभ थे । ‘श्रेणी’ एवं ‘निगमों’ तथा भूमि-माप के आँकड़ों का जिक्र अभिलेखों में किया गया है। जमीन दान देने की चर्चा भी इनमें हुई है। धार्मिक क्षेत्र में ब्राह्मण धर्म का प्रभुत्व अभिलेखों से स्पष्ट परिलक्षित होता है। विष्णु-पूजा, शिव-पूजा, अवतार की कल्पना, बौद्ध एवं जैनधर्म आदि के विषय में भी इन अभिलेखों से जानकारी प्राप्त होती है।
  • इन सभी अभिलेखों की भाषा विशुद्ध संस्कृत है तथा इनमें दी गयी तिथियाँ ‘गुप्त संवत्’ की हैं। इतिहास के साथ ही साथ साहित्य की दृष्टि से भी गुप्त अभिलेखों का विशेष महत्त्व है। इनसे संस्कृत भाषा तथा साहित्य के पर्याप्त विकसित होने का प्रमाण मिलता है। हरिषेण द्वारा विरचित प्रयाग प्रशस्ति तो वस्तुतः एक चरित-काव्य ही है।

मुहर या मुद्रालेख

उत्खनन में प्राप्त मुहरें भी गुप्तकालीन इतिहास के निर्माण के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। गुप्तकालीन मुहरों का अध्ययन करने पर विदित होता है कि तत्कालीन मुहरें प्रायः मिट्टी की बनायी जाती थीं। सिर्फ कुमारगुप्त द्वितीय (पी० एल० गुप्ता के अनुसार तृतीय) की भीतरी राजमुद्रा अपवाद है। वह चाँदी की बनी हुई है। गुप्तकालीन मुहरें संस्कृत में लिखी गयी हैं। अधिकांश मुहरें वैशाली एवं नालंदा से प्राप्त हुई हैं। इन मुहरों में कुछ तो धार्मिक मुहरें हैं, कुछ पदाधिकारियों की, कुछ व्यक्तिगत एवं कुछ श्रेणी, निगम एवं सार्थवाह की मुहरें हैं। वैशाली की मुहरों में ध्रुवस्वामिनी (ध्रुवदेवी, चंद्रगुप्त द्वितीय की पत्नी) की मुहर काफी प्रसिद्ध है। अन्य मुहरों से ज्ञात होता है कि तीरभुक्ति (आधुनिक तिरहुत) गुप्त शासन का एक प्रदेश था तथा वैशाली उस प्रदेश का प्रधान नगर था।

अधिकारियों की मुहरों में कुमारामात्यधिकरण शब्द का बार-बार प्रयोग किया गया है। मुहरों में अन्य पदाधिकारियों; जैसे— रण्भाण्डागारिक, महादण्डनायक, विनयस्थितिस्थापक आदि का उल्लेख हुआ है।

धार्मिक मुहरों से ब्राह्मण धर्म के प्रभुत्व का आभास मिलता है। बौद्धमत की मुहरों प्रतीक का अभाव है।

श्रेष्ठी, कुलिक एवं सार्थवाह का भी जिक्र मुहरों में किया गया है। वैशाली से दान-पत्र संबंधी एक मुहर भी प्राप्त हुई है जिसे कुमारामात्य ने अंकित कराया था।

नालंदा से प्राप्त गुप्तकालीन मुहरें राजकीय वंशावली की चर्चा करती हैं। कुमारगुप्त प्रथम के पश्चात सिंहासन संबंधी विवाद का वर्णन भी इनमें मिलता है। कुमारगुप्त की भीतरी मुहर में श्रीगुप्त से लेकर कुमारगुप्त तक की वंशावली का उल्लेख है। नालंदा मुहर की विशेषता यह है कि इस प्रमाण के आधार पर ही विष्णुगुप्त का गुप्त वंशावली में स्थान नियत हो सका है। बुद्धगुप्त, वैन्यगुप्त, नरसिंहगुप्त, विष्णुगुप्त की मुहरें भी मिली हैं। विस्तृत विवरण के लिए तालिका में दिये गये लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं।

सिक्के

गुप्तवंशी राजाओं के अनेक सिक्के हमें प्राप्त होते हैं। ये स्वर्ण, रजत तथा ताँबे के है। स्वर्ण सिक्कों को ‘दीनार’ रजत सिक्कों को रुपक या ‘रूप्यक’ तथा ताम्र सिक्कों को ‘माषक’ कहा जाता था। गुप्तकालीन स्वर्ण सिक्कों का सबसे बड़ा ढेर राजस्थान प्रान्त के बयाना से प्राप्त हुआ है।

एलन, अल्टेकर आदि विद्वानों ने गुप्तकालीन सिक्कों का विस्तृत अध्ययन किया है।

  • Catalogue of the Coins of the Gupta Dynasty: John Allan
  • The Coinage of the Gupta Empire: Anant Sadashiv Altekar

अनेक सिक्कों पर तिथियाँ भी उत्कीर्ण मिलती हैं जिनके आधार पर हम तत्सम्बन्धी शासकों का तिथि निर्धारित कर सकते हैं। कुछ सिक्कों से कुछ विशिष्ट घटनाओं की सूचना मिलती है। उदाहरणार्थ—

  • एक प्रकार के सुवर्ण सिक्के के मुखभाग पर चन्द्रगुप्त एवं कुमारदेवी की आकृति तथा पृष्ठभाग पर ‘लिच्छवयः’ उत्कीर्ण मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि राजकन्या कुमारदेवी के साथ विवाह किया था।
  • समुद्रगुप्त के अश्वमेध प्रकार के सिक्कों से उसके अश्वमेध यज्ञ की सूचना
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के व्याघ्र हनन प्रकार के सिक्कों से उसकी पश्चिमी भारत (शक-प्रदेश) के विजय की सूचना मिलती है।
  • मध्य प्रदेश के एरण तथा भिलसा से रामगुप्त के कुछ सिक्के मिलते हैं जिनसे हम उसकी ऐतिहासिकता का पुनर्निर्माण करने में सहायता प्राप्त होती है।

कभी-कभी सिक्कों के अध्ययन से हमें उनके काल की राजनीतिक तथा आर्थिक दशा का भी ज्ञान प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ—

  • कुमारगुप्त के उत्तराधिकारियों के सिक्कों से पतनोन्मुख आर्थिक दशा का आभास मिलता है। इनमें मिलावट की मात्रा अधिक है।

गुप्तों के सिक्के बिहार, बंगाल, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उड़ीसा के विभिन्न स्थलों से प्राप्त हुए हैं। गुप्तों के अधिकांश सिक्के ढेर (Hoard) में पाये गये हैं। इनमें सबसे बड़ा ढेर बयाना (भरतपुर के निकट, राजस्थान) से प्राप्त हुआ है। बयाना ढेर में लगभग १,८२१ स्वर्ण सिक्के थे। भारत के बाहर मध्य जावा से चंद्रगुप्त द्वितीय का एक सिक्का मिला था।

इन मुद्राओं में उत्कीर्ण लेखों से गुप्त सम्राटों की पदवियों एवं उनके धार्मिक विश्वासों की जानकारी मिलती है। अधिकतर गुप्तकालीन सिक्के सोने के हैं। इनसे ज्ञात होता है कि राज्य की आर्थिक अवस्था अच्छी थी तथा प्रचुर मात्रा में सोना प्राप्त होता था।

गुप्तकाल की रजत मुद्राएँ भी शासकों के विशेष गुणों पर प्रकाश डालती हैं। मुद्रालेखों का परीक्षण यह प्रकट करता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने शक क्षत्रपों के अनुकरण पर साम्राज्य के पश्चिमी भाग में रजत सिक्के चलवाये। कुमारगुप्त प्रथम तथा स्कंदगुप्त ने भी वैसा ही किया। इनके भू-भाग के सिक्कों पर परम भागवत के विरुद ने मुद्रालेख प्रारंभ होता है। उन रजत सिक्कों पर गुप्त नरेशों ने स्तूप के स्थान पर गरुड़ की आकृति अंकित है। रामगुप्त के ताँबे के सिक्के भी मालवा से प्राप्त हुए हैं।

स्मारक

गुप्तकाल के अनेक मन्दिर, स्तम्भ, मूर्तियाँ एवं चैत्य-गृह (गुहा मन्दिर) प्राप्त होते हैं जिनसे तत्कालीन कला तथा स्थापत्य की उत्कृष्टता का ज्ञान होता है। इन स्मारकों से तत्कालीन सम्राटों एवं जनता के धार्मिक विश्वास को समझने में भी सहायता मिलती है।

  • मन्दिर— मन्दिरों में भूमरा का शिव मन्दिर, तिगवाँ (जबलपुर) का विष्णु मन्दिर, नचना-कुठार (मध्य प्रदेश के भूतपूर्व अजयगढ़ रियासत में वर्तमान) का पार्वती मन्दिर, देवगढ़ (झाँसी) का दशावतार मन्दिर, भितरगाँव (कानपुर) का मन्दिर तथा लाड़खान (ऐहोल के समीप) के मन्दिर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये सभी मन्दिर अपनी निर्माण-शैली, आकार-प्रकार एवं सुदृढ़ता के लिये प्रसिद्ध है तथा वास्तुकला के भव्य नमूने हैं।
  • मूर्तियाँ— सारनाथ, मथुरा, सुल्तानगंज, करमदण्डा, खोह, देवगढ़ आदि स्थानों से बुद्ध, शिव, विष्णु आदि देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनसे तत्कालीन तक्षणकला पर प्रकाश पड़ता है। साथ ही इन मूर्तियों में गुप्त नरेशों की धार्मिक सहिष्णुता भी सूचित होती है।
  • गुहा निर्माण— मन्दिर तथा मूर्तियों के साथ ही साथ बाघ (ग्वालियर, म० प्र०) तथा अजन्ता की कुछ गुफाओं (१६वीं एवं १७वीं) के चित्र भी गुप्त काल के ही माने जाते हैं। बाघ की गुफाओं के चित्र लौकिक जीवन से सम्बन्धित है जबकि अजन्ता के चित्रों का विषय धार्मिक है। इन चित्रों के माध्यम से गुप्तकालीन समाज की वेष-भूषा, शृंगार-प्रसाधन एवं धार्मिक विश्वास को समझने में सहायता मिलती है। साथ ही इनसे गुप्तयुगीन चित्रकला के पर्याप्त विकसित होने का भी प्रमाण उपलब्ध हो जाता है।

इस प्रकार साहित्य एवं पुरातत्त्व दोनों के माध्यम से हम गुप्तकालीन इतिहास का पुनर्निर्माण कर सकते हैं।

FAQ

गुप्तकाल के ऐतिहासिक स्रोतों पर एक निबंध लिखिए। (250 शब्द)
Write an essay on the sources of the history of the Guptas. (250 words)

गुप्तकाल भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम काल है। गुप्तकालीन ऐतिहासिक स्रोतों को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है: साहित्यिक स्रोत और पुरातात्त्विक स्रोत।

साहित्यिक स्रोत: इसे पुनः स्वदेशी और विदेशी साहित्यों में बाँटा गया है।

  • स्वदेशी स्रोत में पुराण, स्मृतियाँ, कामंदकीय नीतिसार, देवीचंद्रगुप्तम्, मृच्छकटिक, कौमुदी महोत्सव, कालिदास की कृतियाँ इत्यादि प्रमुख हैं।
  • विदेशी स्रोत में फाहियान और ह्वेनसांग की रचनाएँ प्रमुख हैं।

पुरातात्त्विक स्रोत: इसे अभिलेख, सिक्के और वास्तुशिल्प (स्मारकों) में विभाजित करके अध्ययन करते हैं।

  • अभिलेखों में प्रमुख हैं— प्रयाग प्रशस्ति, उदयगिरि गुहालेख, भीतरी स्तम्भ लेख, जूनागढ़ अभिलेख, एरण अभिलेख इत्यादि।
  • सिक्के— गुप्तकालीन सिक्कों के ढेर कई स्थलों से प्राप्त हुए हैं, इसमें बयाना से प्राप्त ढेर सबसे बड़ा है। इनके स्वर्ण, रजत और ताम्र सिक्के मिलते हैं।
  • स्मारक या वास्तुकला— इसमें प्रमुख हैं- देवगढ़ का दशावतार मंदिर, बाघ और अजंता की गुफाएँ और चित्रकला इत्यादि।
  • मूर्तिकला— सारनाथ, मथुरा, सुल्तानगंज, करमदंडा इत्यादि स्थलों से प्राप्त मूर्तियाँ।

इन साहित्यिक और पुरातात्त्विक स्रोतों के माध्यम से गुप्तकाल की राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रगति को समझा जा सकता है। यह युग न केवल भारत में, बल्कि विश्व इतिहास में भी अपनी विशेष पहचान रखता है।

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