यद्यपि प्राचीन भारतीय साहित्य तथा अभिलेखों में अनेक ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख प्राप्त होता है जिनके नाम के अंत में ‘गुप्त’ शब्द मिलता है, तथापि इनका गुप्त शासकों के साथ क्या सम्बन्ध था यह निश्चित नहीं है। उदाहरणार्थ एक जातक कथा में बनारस के एक राजा के पुत्र का नाम गुप्त दिया गया है। गुप्त शब्द महाभाष्य (पतंजलि), मृच्छकटिक (शूद्रक), दिव्यावदान, महावंश आदि ग्रंथों में मिलता है। साथ ही कतिपय अभिलेखों में भी गुप्त शब्द का प्रयोग मिलता है— भरहुत स्तंभ लेख, नासिक से प्राप्त एक अभिलेख इत्यादि।
इनसे गुप्तों की प्राचीनता का तो आभास मिलता है, परंतु यह कहना कठिन है कि इन गुप्त नामधारी व्यक्तियों का गुप्त शासकों से कोई सम्बन्ध था या नहीं।
यद्यपि गुप्त नरेशों के अनेक अभिलेख तथा सिक्के मिले हैं, तथापि उनमें किसी से भी न तो उनके वर्ण अथवा जाति के विषय में कोई संकेत मिलता है और न ही साहित्यिक साक्ष्यों से हमें इस विषय में कोई ठोस सामग्री उपलब्ध होती है।
फलस्वरूप गुप्तों की उत्पत्ति का प्रश्न प्राचीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक विवादग्रस्त प्रश्नों में से एक है। विद्वानों ने इस राजवंश को शूद्र से लेकर ब्राह्मण वर्ण अथवा जाति तक का सिद्ध करने का अलग-अलग प्रयास किया है।
मत | समर्थक |
शूद्र | काशी प्रसाद जायसवाल |
वैश्य | एलन, एस०के० आयंगर, अनंत सदाशिव अल्तेकर, रोमिला थापर, राम शरण शर्मा |
क्षत्रिय | गौरी शंकर ओझा, सुधाकर चट्टोपाध्याय, रमेशचंद्र मजूमदार, |
ब्राह्मण | हेमचंद्र राय चौधरी |
यहाँ हम प्रत्येक मत की अलग-अलग समीक्षात्मक विश्लेषण करेंगे—
शूद्र अथवा निम्न उत्पत्ति का मत
गुप्तों को शूद्र अथवा निम्न जाति से सम्बन्धित करने वाले विद्वानों में काशी प्रसाद जायसवाल का नाम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। जायसवाल की यह धारणा है कि गुप्त नरेशों ने निम्न वर्ण से सम्बद्ध होने के कारण ही अपने अभिलेखों में अपनी जाति का उल्लेख नहीं किया है। अपने मत की पुष्टि के लिये उन्होंने ‘कौमुदी महोत्सव’ नामक एक नाटक ग्रन्थ का सहारा लिया है जिसकी रचना सम्भवतया वज्जिका नाम की किसी कवयित्री ने किया था। इस नाटक में एक कथा मिलती है जिसका सारांश इस प्रकार है—
मगध में सुन्दर वर्मा नामक एक क्षत्रिय राजा शासन करता था। उसका कोई पुत्र नहीं था, अतः उसने चण्डसेन नामक एक व्यक्ति को गोद लिया। चण्डसेन राजाओं में कारस्कर कहा गया है। कुछ समय पश्चात् सुन्दर वर्मा को कल्याण वर्मा नामक एक अपना पुत्र उत्पन्न हुआ। कल्याण वर्मा के जन्म से चण्डसेन को बड़ी निराशा हुई। उसने मगध के शत्रु म्लेच्छ लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर अवसर पाकर कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) को घेर लिया। युद्ध में सुन्दर वर्मा मार डाला गया तथा चण्डसेन मगध का राजा बन बैठा।
पाटलिपुत्र में कल्याणवर्मा के जीवन को असुरक्षित देखकर उसके पिता के योग्य तथा अनुभवी मन्त्रियों ने उसे ‘पम्पासर’ नामक स्थान में पहुँचा दिया। इसके बाद उन्होंने चण्डसेन के विरुद्ध विद्रोह भड़काया। सीमान्त प्रदेशों में विद्रोह उठ खड़े हुए जिनको दबाने के प्रयास में चण्डसेन अपने बन्धुओं सहित मार डाला गया। उसकी मृत्यु के साथ ही उसका वंश समाप्त हुआ। तत्पश्चात् कल्याणवर्मा मगध का राजा हुआ।”
काशी प्रसाद जायसवाल ने कौमुदी महोत्सव नाटक के चण्डसेन की समता गुप्तवंश के तीसरे सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ स्थापित की है। चन्द्रगुप्त प्रथम का भी लिच्छवियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था और कौमुदी महोत्सव के अनुसार चण्डसेन ने भी लिच्छवि कुल में अपना सम्बन्ध स्थापित किया था। कौमुदी महोत्सव में लिच्छवियों को ‘म्लेच्छ’ कहा गया है, अतः चन्द्रगुप्त प्रथम भी म्लेच्छ अथवा निम्न जातीय रहा होगा। इस ग्रन्थ में चण्डसेन ‘कारस्कर’ कहा गया है। बौद्धायन ने इसका अर्थ निम्न जातीय बताया है, अतः इस आधार पर भी चण्डसेन अर्थात् चन्द्रगुप्त शूद्र प्रमाणित होता है।
काशी प्रसाद जायसवाल महोदय ने अपने मत का समर्थन कुछ अन्य प्रमाणों से भी किया है जो इस प्रकार है—
चन्द्रगोमिन् के व्याकरण की एक सूत्रवृत्ति में ‘अजयत् जर्टी हूणान्’ अर्थात् जर्ट लोगों ने हूणों की जीता था, लिखा मिलता है। यहाँ स्कन्दगुप्त की हूण विजय की ओर संकेत किया है। इस ग्रन्थ में भी गुप्तों को जर्ट अथवा जाट कहा गया है।
अतः कौमुदी महोत्सव नाटक तथा चन्द्रगोमिन् के व्याकरण, इन दोनों के सम्मिलित साक्ष्य से गुप्त लोग ‘कारस्कर जर्ट’ सिद्ध होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे आधुनिक कक्कड़ जाट के कोई पूर्वज रहे होंगे।
प्रभावती गुप्ता, जो चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री थी, ने अपने पूना ताम्र-पत्र में अपने को धारण गोत्र का बताया है। यह गोत्र उसके पिता का था क्योंकि उसका पति वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था। काशी प्रसाद जायसवाल महोदय ने इस ‘धारण’ गोत्र का समीकरण जाटों की धरणि शाखा से किया है। इससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि गुप्तवंशी नरेश उच्च वर्ण के नहीं थे। इसी सन्दर्भ में उन्होंने मत्स्यपुराण का यह कथन भी उद्धृत किया है जिसमें “महानन्दी के बाद शूद्रयोनि के राजा पृथ्वी पर शासन करेंगे”।१ ऐसा उल्लेख मिलता है। इस कथन से भी गुप्तों की निम्न उत्पत्ति का संकेत प्राप्त होता है।
“ततः प्रभृत्ति राजानो भविष्यन्ति शूद्रयोनयः।“ १
समीक्षा
इन सभी प्रमाणों के आधार पर काशी प्रसाद जायसवाल महोदय गुप्तों को शूद्र अथवा निम्नजातीय प्रमाणित करने की चेष्टा करते है।
काशी प्रसाद जायसवाल के उपर्युक्त तर्क यद्यपि देखने में सबल प्रतीत होते हैं परन्तु यदि सावधानीपूर्वक उनकी समीक्षा की जाय तो ऐसा प्रतीत होगा कि उनमें कोई विशेष बल नहीं है। कौमुदी महोत्सव नाटक में जिस चण्डसेन का उल्लेख हुआ है, उसकी पहचान गुप्तवंशी चन्द्रगुप्त प्रथम से नहीं की जा सकती। नाटक के अनुसार युद्ध में चण्डसेन अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मार डाला गया।२
वत्सानुबन्धो निहतश्चण्डसेन हतकः।…..उन्मूलित चण्डसेन राजकुलम्। २
दूसरे शब्दों में उसकी मृत्यु के साथ ही उसका वंश भी समाप्त हो गया। चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ ऐसी कोई दुर्घटना नहीं हुई। हमें यह निश्चित रूप से पता है कि उसकी मृत्यु के पश्चात् शताब्दियों तक उसका वंश चलता रहा।
यदि हम चण्डसेन तथा चन्द्रगुप्त दोनों को एक व्यक्ति मान लें तो ऐसी स्थिति में हमें गुप्तों का इतिहास चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ ही समाप्त कर देना होगा, जो सर्वथा अस्वाभाविक घटना होगी। अतः चण्डसेन गुप्तवंशी चन्द्रगुप्त नहीं हो सकता।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जे०एस० नेगी३ की धारणा है कि कौमुदी महोत्सव में प्रयुक्त ‘निहतः’ शब्द से चण्डसेन का मारा जाना सूचित नहीं होता। रामायण से उदाहरण देते हुये उन्होंने स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि संस्कृत की ‘हन्’ धातु का प्रयोग कभी-कभी विपत्ति अथवा अपमान को सूचित करने के लिये भी किया जाता है। अतः यहाँ चण्डसेन के अपमानित होने अथवा क्षणिक हानि उठाने से तात्पर्य है।
- Some Indological Studies, J.S. Negi३
परन्तु इस प्रकार के विचार से सहमत होना कठिन है क्योंकि नाटक में चण्डसेन के प्रसंग में यह भी कहा गया है कि उसका कुल उन्मूलित कर दिया गया। इस शब्द से उसके विनाश की सूचना मिलती है, न कि केवल अपमानित किये जाने की।
अधिकांश विद्वान कौमुदी महोत्सव की ऐतिहासिकता में सन्देह करते हैं। क्षेत्रेश चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में उल्लिखित ‘कृतिवासस’ शब्द की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है। इस शब्द का शाब्दिक अर्थ तो शंकर से है परन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ शंकराचार्य भी होता है क्योंकि इसमें ‘कृतिवासस्’ को द्वैत की गाँठ का भेदन करने वाला’ (नानात्व ग्रन्थि-भेत्री) कहा गया है। स्पष्ट है कि इससे तात्पर्य अद्वैतवाद के प्रणेता शंकराचार्य से ही है जिनका समय ७८१-८२० ईस्वी माना जाता है। इस ग्रन्थ में शंकराचार्य का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि यह बहुत बाद की रचना है। अतः गुप्त इतिहास के पुनर्निर्माण में इसे सहायक नहीं माना जा सकता।४ इस प्रकार कौमुदी महोत्सव के आधार पर गुप्तों की जाति के विषय में कोई निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत नहीं लगता।
- Indian Historical Quarterly, Vol-14, p. 584-85.४
जहाँ तक ‘चान्द्र व्याकरण’ का प्रश्न है, सभी विद्वान इस मत के नहीं है कि इसमें गुप्तों के लिये ‘जर्ट’ शब्द का प्रयोग हुआ है। हर्नले ने जर्ट के स्थान पर ‘जप्त’ पाठ पढ़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि चन्द्रगोमिन् की मूल पाण्डुलिपि में ‘गुप्त’ पाठ ही रहा होगा जिसे कालान्तर में लिपि की भूल से जर्ट या जप्त लिख दिया गया। अतः इसमें गुप्तों की जाति के विषय में अपमानजनक कुछ भी नहीं है।
जहाँ तक पूना ताम्रपत्र के धारण गोत्र का प्रश्न है, इसकी पहचान जाटों की धरणि शाखा से नहीं की जा सकती क्योंकि इन दोनों शब्दों में उच्चारण के अतिरिक्त कोई दूसरी समानता नहीं है। मत्स्यपुराण का कथन केवल नन्दों तक ही सीमित है क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि महानन्दी के बाद शासन करने वाले सभी राजा शूद्र थे। जैसे मौर्य क्षत्रिय थे, शुंग तथा सातवाहन ब्राह्मण थे।
इस विवेचन के आधार पर हम गुप्तों को शूद्र अधवा निम्न जाति का नहीं मान सकते।
वैश्य होने का मत
एलन, एस०के० आयंगर, अनन्त सदाशिव अल्टेकर, रोमिला थापर, रामशरण शर्मा जैसे कुछ विद्वान् गुप्तों को वैश्य मानते हैं।
अपने मत के समर्थन में अनन्त सदाशिव अल्टेकर महोदय ने विष्णु पुराण के एक श्लोक का सहारा लिया है जिनके अनुसार ‘ब्राह्मण के नाम के अन्त में शर्मा, क्षत्रिय के अन्त में वर्मा तथा वैश्य और शूद्रों के नामान्त में क्रमशः गुप्त और दास शब्दों का प्रयोग करना चाहिये।’५
“शर्मेति ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम्।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो:॥” ५
—विष्णु पुराण, ३/१०/९
इसी के साथ ‘धारण’ गोत्र अग्रवाल वैश्यों का एक विशिष्ट गोत्र माना जाता है।
गुप्त राजाओं के नामान्त में ‘गुप्त’ शब्द जुड़ा देखकर अल्टेकर उन्हें वैश्य जाति से सम्बन्धित करते हैं। उनके मतानुसार गुप्त युग तक आते-आते वर्षों के अनुसार व्यवसाय चयन का सिद्धान्त शिथिल पड़ गया था। ब्राह्मण क्षत्रियों का काम करने लगे थे; जैसे— वाकाटक और कदम्ब वंशों के लोग ब्राह्मण होते हुये भी शासन कार्य करते थे। गुप्तकालीन रचना शूद्रक कृत ‘मृच्छकटिक’ में चारुदत्त नामक एक ब्राह्मण को ‘सार्थवाह’ (व्यापारी) कहा गया है। अतः गुप्त लोग यदि वैश्य होते हुये भी शासन करते थे तो इस विषय में हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये।
समालोचना
अल्टेकर का उपर्युक्त मत कई दृष्टियों से विचारणीय है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुप्त वंश के दूसरे सम्राट घटोत्कच के नाम के अन्त में ‘गुप्त’ शब्द नहीं जुड़ा मिलता। अभिलेखों में उसे केवल महाराज घटोत्कच ही कहा गया है। वास्तविकता यह है कि ‘गुप्त’ नाम इस वंश के संस्थापक का था और सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने इसे अपने नाम के अन्त में प्रयुक्त किया था। कालान्तर में सभी राजाओं ने इसका अनुकरण किया। पुनश्च ‘गुप्त’ शब्द धारण करना केवल वैश्य वर्ण के लोगों का ही एकाधिकार नहीं था। प्राचीन भारतीय साहित्य से हमें अनेक नाम ऐसे मिलते हैं जो यद्यपि वैश्य नहीं थे तथापि उन्होंने गुप्त शब्द अपने नामान्त में धारण किया था। उदाहरण के लिये कौटिल्य, जो एक रूढ़िवादी ब्राह्मण थे, का एक नाम विष्णुगुप्त भी था; सुप्रसिद्ध खगोलशास्त्री ब्रह्मगुप्त ब्राह्मण वर्ण के थे। इसी प्रकार कुछ अन्य नाम भी प्राचीन साहित्य तथा लेखों से खोजे जा सकते है। अतः केवल गुप्त शब्द के ही आधार पर गुप्त राजवंश को वैश्य वर्णान्तर्गत रखना समीचीन नहीं होगा।
क्षत्रिय होने का मत
सुधाकर चट्टोपाध्याय, रमेशचन्द्र मजूमदार, गौरीशंकर होराचन्द्र ओझा आदि कुछ विद्वान्, गुप्तों को क्षत्रिय जाति से सम्बन्धित करते हैं। इनके तर्को का सारांश इस प्रकार है—
- पंचोभ (बिहार के दरभंगा जिले में स्थित) से प्राप्त एक लेख में किसी गुप्तवंश का उल्लेख हुआ है। इस गुप्तवंश के लोग अपने को पाण्डव अर्जुन का वंशज मानते थे तथा शैवमतानुयायी थे। इस गुप्तवंश की पहचान सम्राट गुप्तवंश से की गयी है तथा पाण्डव अर्जुन के आधार पर उन्हें क्षत्रिय माना गया है।
- जावा से प्राप्त ‘तन्त्रीकामन्दक’ नामक ग्रन्थ में महाराजा ऐश्वर्यपाल का उल्लेख मिलता है। वह अपने को ईक्ष्वाकुवंशी (सूर्यवंशी) क्षत्रिय कहता है तथा समुद्रगुप्त का वंशज वताता है। अतः गुप्त लोग सूर्यवंशी क्षत्रिय रहे होंगे।
- सिरपुर के लेख में चन्द्रगुप्त नामक राजा को चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है। इस चन्द्रगुप्त की पहचान गुप्तवंशी चन्द्रगुप्त प्रथम से की जाती है और गुप्तों को भी चन्द्रवंशी क्षत्रिय माना गया है।
- गुप्तों का लिच्छवियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था। लिच्छवियों को क्षत्रिय माना गया है, अतः गुप्त लोग भी क्षत्रिय रहे होंगे।
समालोचना
परन्तु ये सभी तर्क निर्बल है। इनकी समीक्षा हम इस प्रकार कर सकते हैं—
- पंचोभ के लेख में जिस गुप्त वंश का उल्लेख हुआ है वह गुप्त राजवंश नहीं प्रतीत होता। यदि इस वंश के लोग गुप्त राजवंश से सम्बन्धित होते तो इस अभिलेख में समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य जैसे प्रतापी राजाओं का उल्लेख अवश्य करते। उनका वंशज बताने में वे गर्व का अनुभव करते।
- तन्त्रीकामन्दक एक मध्यकालीन रचना है जिसे गुप्त इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायक नहीं माना जा सकता।
- सिरपुर अभिलेख का चन्द्रगुप्त गुप्तवंशी नहीं प्रतीत होता क्योंकि दोनों की वंश परम्परायें अलग-अलग है।
- यह तथ्य विदित है कि लिच्छवि क्षत्रिय थे। पालि ग्रन्थों में उन्हें खत्तिय कहा गया है। बौद्ध ग्रंथ ‘महापरिनिर्वाण सूत्र’ के अनुसार भगवान बुद्ध के धातु अवशेषों पर दावा करनेवाले ८ क्षत्रियों में से एक वैशाली के लिच्छवि भी थे। मनु ने विद्वेष के कारण उन्हें ‘व्रात्य’ (धर्मच्युत) कहा है।
ब्राह्मण होने का मत
गुप्तों की उत्पत्ति के विषय में जितने भी मत दिये गये हैं उनमें उनको ब्राह्मण जाति से सम्बन्धित करने का मत कुछ तर्कसंगत प्रतीत होता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि गुप्तवंशी लोग ‘धारण’ गोत्र के थे। इसका उल्लेख चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता ने अपने पूना ताम्रपत्र६ में किया है। यह गोत्र उसके पिता का ही था क्योंकि उसका पति वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय ‘विष्णुवृद्धि’ गोत्र का ब्राह्मण था। यह गोत्र ब्राह्मणों का था।
परमभागवतो महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्तस्य दुहिता धारणसगोत्रा श्रीप्रभावतीगुप्ता।६
—पूना ताम्र-लेख
हेमचन्द्र रायचौधरी ‘धारण’ का तादात्म्य शुंग शासक अग्निमित्र की प्रधान महिषी धारिणी से स्थापित करते हुये यह प्रतिपादन करते हैं कि गुप्त लोग उसी के वंशज थे। इसका जिसका उल्लेख कालिदास के मालविकाग्निमित्र में मिलता है। किन्तु इस प्रकार के निष्कर्ष के लिये कोई प्रमाण नहीं है।
हेमचंद्र रायचौधरी के मत की आलोचना करते हुए प्रो० गोयल का कहना है कि “किसी रानी के नाम का संबंध उसके समय से लगभग पाँच सौ वर्ष बाद साम्राज्य स्थापित करने वाले वंश के साथ जोड़ना कदापि तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है।”
स्कन्द पुराण में ब्राह्मणों के चौबीस गोत्र गिनाये गये हैं जिनमें बारहवाँ गोत्र ‘धारण’ है। इस ग्रन्थ में धारण गोत्रीय ब्राह्मणों की जिन चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख हुआ है वे सभी गुप्त सम्राटों के व्यवहार एवं चरित्र में देखी जा सकती हैं।
दशरथ शर्मा जैसे कुछ विद्वान् यह मत रखते हैं कि प्राचीन भारत में लोग अपने पुरोहित का गोत्र भी धारण कर लेते थे। अतः संभव है प्रभावती गुप्ता का ‘धारणगोत्र’ उसके पिता का न होकर किसी पुरोहित का हो। किन्तु जैसा कि मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि ने स्पष्ट किया है, केवल क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण के लोग ही अपने पुरोहित का गोत्र धारण करते थे, न कि ब्राह्मण। प्रभावती गुप्ता चूँकि ब्राह्मण वर्ण की थी, अतः उसके द्वारा अपने पुरोहित के गोत्र को धारण किये जाने का प्रश्न नहीं उठता।
कदम्बवंशी राजा काकुत्सवर्मा के तालगुण्ड (मैसूर) अभिलेख से पता चलता है कि उसने अपनी एक पुत्री का विवाह गुप्तकुल (गुप्तादिपार्थिवकुलानि) में किया था। कदम्बवंशी लोग मानव्य गोत्रीय ब्राह्मण थे तथा उन्होंने अपने को हारीत का वंशज बताया है। इस वंश के संस्थापक मयूरशर्मा को कौटिल्य की प्रकृति का रूढ़िवादी ब्राह्मण कहा गया है। कदम्ब नरेश ‘धर्ममहाराज’ एवं ‘धर्ममहाराजाधिराज’ की उपाधियाँ धारण करते थे। इस कुल को कन्याओं का विवाह वाकाटक तथा गंग जैसे ब्राह्मण कुलों में सम्पन्न हुआ था। हमें कोई भी प्रमाण ऐसा नहीं मिलता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि कदम्ब कुल की कोई कन्या किसी ब्राह्मणेतर कुल में व्याही गयी थी। यह कहा जा सकता है कि यदि गुप्त लोग ब्राह्मण नहीं होते तो यह वैवाहिक सम्बन्ध प्रतिलोम विवाह की कोटि में आता जिसमें कन्या अपने से निम्न वर्ण में दी जाती है। इस प्रकार का विवाह स्मृति-ग्रन्थों में अति निन्दनीय कहा गया है। गुप्तकाल में प्रतिलोम विवाहों के उदाहरण बहुत कम प्राप्त होते हैं। कदम्बवंशी लोग जो उच्चकुल के ब्राह्मण (द्विजोत्तम) थे, अपने व्यवहार द्वारा शास्त्रोल्लंघन नहीं कर सकते थे। संदेह किया जा सकता है कि गुप्तों की शक्ति से डर कर अथवा उनकी समृद्धि से प्रभावित होकर कदम्बों ने शास्त्रोल्लंघन किया होगा। किन्तु हम जानते हैं कि समुद्रगुप्त के अतिरिक्त किसी भी गुप्तवंशी शासक ने सुदूर दक्षिण में अभियान नहीं किया। अतः कदम्बों द्वारा उनकी शक्ति से भयभीत होने का प्रश्न नहीं उठता। उनकी रूढ़िवादिता तथा धार्मिक कट्टरता को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने समृद्धि के आगे धर्म का परित्याग किया होगा। पुनश्च गुप्तवंश की कन्याओं का विवाह भी ब्राह्मण कुलों में ही हुआ था। प्रभावतीगुप्ता वाकाटक कुल में व्याही गयी थी।
छठी शताब्दी के बौद्ध लेखक परमार्थ ने बताया है कि बालादित्य ने अपनी बहन का विवाह वसुराट नामक ब्राह्मण से किया था। अतः गुप्तों को ब्राह्मण मानना ही अधिक समीचीन लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी अतिशय उदारता एवं धर्म-सहिष्णुता की नीति के कारण ही गुप्त राजाओं ने अपने अभिलेखों में अपने वर्ण का उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा है।
समालोचना
परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि वैवाहिक सम्बन्धों के आधार पर यदि गुप्तों को ब्राह्मण बताया जा सकता है तो यह तर्क क्षत्रिय होने के पक्ष में अधिक मजबूत है। इसका कारण यह है कि लिच्छवि प्राचीन क्षत्रिय थे। कुमारदेवी और चंद्रगुप्त प्रथम का विवाह तब हुआ था जब गुप्तों का उत्थान हो रहा था।
जहाँ तक वाकाटक और कदंब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध की बात है वह तब हुआ जब गुप्तों की शक्ति अपने पराकाष्ठा पर थी।
अगर गुप्तों की शक्ति से डरकर विवाह करने का प्रश्न है तो यह लिच्छवियों के सम्बन्ध में तो बिल्कुल नहीं लागू होती क्योंकि तब गुप्तों का उत्थान प्रारम्भ हुआ था। हाँ वाकाटकों और कदंबों पर यह अवश्य लागू होती है क्योंकि तब तक गुप्त राजवंश साम्राज्य बन चुका था और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सुदूर दक्षिण को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर उनकी प्रभुसत्ता स्थापित हो चुकी थी।
निष्कर्ष
इस प्रकार इन विभिन्न मतों की समीक्षा करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि गुप्तों की जाति का प्रश्न हमारे ज्ञान की वर्तमान अवस्था में असंदिग्ध रूप से हल नहीं किया जा सकता। हमें संभावित रूप से उन्हें क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण वर्णों में किसी एक के साथ सम्बद्ध करना चाहिए। बहुत संभव है वे क्षत्रिय या ब्राह्मण ही रहे हों। साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कर्म के सिद्धांत के अनुसार शासन करनेवाला क्षत्रिय होता है, वह चाहे जिस वर्ण या जाति में उत्पन्न हुआ हो।
FAQ
गुप्त राजवंश की उत्पत्ति और वर्ण या जाति सम्बन्धित विवाद पर टिप्पणी लिखिए।
Write a comment on the origin and varna or caste-related controversies of the Gupta dynasty.
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‘गुप्त’ शब्द प्राचीन भारतीय साहित्य और अभिलेखों में पाया जाता है, लेकिन इसका गुप्त शासकों से संबंध अनिश्चित बना हुआ है।
वंशावली पर विद्वानों की बहस: विभिन्न विद्वान गुप्तों की उत्पत्ति के बारे में विभिन्न विचार प्रस्तुत करते हैं। वर्ण या जाति विवाद:
शूद्र होने का दावा— कुछ विद्वान गुप्तों को शूद्र मानते हैं और “कौमुदी महोत्सव” जैसे ग्रंथों के संदर्भों का हवाला देते हैं, जबकि अन्य तर्क देते हैं कि ऐसे वर्गीकरण में ठोस प्रमाणों की कमी है।
वैश्य होने का दावा— कई विद्वानों का मानना है कि गुप्त वैश्य वंश के थे, क्योंकि प्राचीन ग्रंथों में ‘गुप्त’ नामान्त का उपयोग व्यापारियों द्वारा किया जाता था।
क्षत्रिय होने के तर्क: कई समकालीन विद्वान गुप्तों को क्षत्रिय मानते हैं, क्योंकि ऐतिहासिक विवाह और अभिलेख उनके राजसी वंश को दर्शाते हैं
ब्राह्मण होने के तर्क: कुछ ‘धारण’ गोत्र के माध्यम से ब्राह्मण संबंध का सुझाव देते हैं, जबकि अन्य इसे प्रमाण की कमी के कारण अस्वीकार करते हैं।
निष्कर्ष: गुप्त शासकों की वर्ण या जाति अभी भी विवादित है। इसमें ब्राह्मण से क्षत्रिय तक की संभावनाएँ शामिल हैं, जो प्राचीन भारत में सामाजिक वर्गों की जटिलताओं को दर्शाता है।