भूमिका
ई० पू० प्रथम शताब्दी के मध्य से उत्तर-पश्चिम में गान्धार में कला की एक विशेष शैली का विकास हुआ जिसे “गान्धार शैली” कहते हैं। इस शैली को यूनानी-बौद्ध शैली भी कहा जाता है। इसका सर्वाधिक विकास कुषाण काल में हुआ। इस काल की विषयवस्तु बौद्ध परम्परा से ली गयी थी परन्तु निर्माण का ढंग यूनानी था।
गान्धार शैली की प्रारम्भिक बौद्ध मूतियों में महात्मा बुद्ध का मुख यूनानी देवता अपोलो से मिलता-जुलता है। कृतियों का परिवेश रोमन ‘टोगा’ जैसा है। ईसवी सन् की तीसरी शती में गान्धार कला के उदाहरण ‘हद्दा’ और ‘जौलियन’ में मिले हैं। ये कला की दृष्टि से बहुत उत्कृष्ट हैं। यही कला हद्दा से बामियान और वहाँ से चीनी तुर्किस्तान और चीन पहुँची।
गान्धार कला के अन्तर्गत मूर्तियों में शरीर की आकृति को सर्वथा यथार्थ दिखाने का प्रयत्न किया गया है। मथुरा शैली में शरीर को यथार्थ दिखलाने का प्रयत्न नहीं किया गया है, अपितु मुखाकृति में आध्यात्मिक सुख और शांति व्यक्त की गयी है। दूसरे शब्दों में गान्धार कला यथार्थवादी थी और मथुरा की आदर्शवादी।
भगवान बुद्ध की मूर्ति का निर्माण सर्वप्रथम गान्धार कला में या मथुरा कला में किया गया?
यूनानी कला के प्रभाव से देश के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में कला की जिस नवीन शैली का उदय हुआ उसे ‘गान्धार कला’ कहा जाता है। पाश्चात्य विद्वानों की धारणा है कि सर्वप्रथम गान्धार शैली में ही बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण किया गया। परन्तु इस सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण हमें प्राप्त नहीं होता।
वी० एस० अग्रवाल ने अत्यन्त तार्किक ढंग से यह सिद्ध कर दिया है कि सर्वप्रथम भगवान बुद्ध की मूर्ति का निर्माण मथुरा के शिल्पियों द्वारा किया गया था। चूँकि मथुरा के शिल्पी बहुत पहले से ही यक्ष तथा नाग की सुन्दर-सुन्दर मूर्तियाँ बना रहे थे, अतः कोई कारण नहीं कि बुद्ध मूर्तियों की रचना का प्रथम श्रेय उन्हें न दिया जाय।
विषय-वस्तु
गान्धार शैली में भारतीय विषयों को यूनानी ढंग से व्यक्त किया गया है। इस पर रोमन कला का भी प्रभाव स्पष्ट है। इसका विषय केवल बौद्ध है और इसी कारण कभी-कभी इस कला को यूनानी-बौद्ध (Greco-Buddhist), इण्डो-ग्रीक (Indo-Greek) अथवा यूनानी-रोमीय (Greco-Roman) कला भी कहा जाता है।
प्रमुख केन्द्र
इस शैली की मूर्तियाँ अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के अनेक प्राचीन स्थलों से प्राप्त हुई है। वासुदेव शरण अग्रवाल ने गान्धार कला के ७ स्थलों का संकेत किया है — तक्षशिला, पुष्कलावती, नगरहार, स्वात घाटी, कापिशी, बामियाँ और बाह्लीक (बैक्ट्रिया)।
इस कला का प्रमुख केन्द्र गान्धार ही था और इसी कारण यह ‘गान्धार कला’ के नाम से ही ज्यादा लोकप्रिय है।
बौद्ध मूर्तियाँ
गान्धार कला के अन्तर्गत भगवान बुद्ध एवं बोधिसत्वों की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया गया। ब्राह्मण तथा जैन धर्मों से सम्बन्धित मूर्तियाँ इस कला में प्रायः नहीं मिलती हैं। ये मूर्तियाँ काले स्लेटी पाषाण, चूने तथा पकी मिट्टी से बनी हैं। भगवान बुद्ध की इन मूर्तियों को विभिन्न मुद्राओं में बनाया गया है; यथा — ध्यान, पद्मासन, धर्मचक्रप्रवर्तन, वरद, अभय आदि।
महात्मा बुद्ध की प्रतिमा, शाहजी की ढेरी के अस्थिमंजूषा के ढक्कन पर बनी हुई
आरम्भिक बुद्ध मूर्ति पेशावर के निकट ‘शाहजी की ढेरी’ से प्राप्त कनिष्क चैत्य की अस्थिमंजूषा पर बनी है। विरमान की अस्थिमंजूषा पर भी महात्मा बुद्ध को मानव रूप से दर्शाया गया है।
“शाहजी की ढेरी” से प्राप्त मंजूषा के ढक्कन पर महात्मा बुद्ध पद्मासन मुद्रा में विराजमान हैं। उनके दायें तथा बायें क्रमशः ब्रह्मा तथा इन्द्र की मूर्तियाँ अंकित है। भगवान बुद्ध के कन्धों पर संघाटी तथा ढक्कन के किनारे उड़ते हुए हंसों की पंक्ति है। मंजूषा के किनारे कन्धों पर माला उठाये हुए यक्षों की आकृतियाँ हैं। उत्कीर्ण लेख में कनिष्क तथा अगिशल नामक वास्तुकार का उल्लेख प्राप्त होता है।
सहरी बहलोल, तख्तेबाही आदि से मिली स्थानक मुद्रा की मूर्तियाँ अधिक मांसल तथा भारी-भरकम काया की हैं। बर्लिन संग्रहालय में रखी गयी ध्यान मुद्रा में निर्मित मूर्ति में शान्ति, करुणा एवं आभा का प्रदर्शन मिलता है। इसी तरह लाहौर संग्रहालय में रखी गयी एक मूर्ति संरचना एवं शिल्प की दृष्टि से उल्लेखनीय है।
बुद्ध मुख प्रतिमा, तक्षशिला
तक्षशिला (रावलपिंडी, पाकिस्तान) से प्राप्त बुद्ध की प्रतिमा ईसा की दूसरी शताब्दी के कुषाण काल की है। यह प्रतिमा गान्धार काल में विकसित अनेक चित्रात्मक परिपाटियों का मिला-जुला (Hybridised pictorial conventions) रूप है। प्रतिमा के स्वरूप में कई यूनानी-रोमन तत्त्व (Greco-Roman elements) पाये जाते हैं।
बुद्ध के शीर्ष में अनेक यूनानी तत्त्व (Hellenistic elements) हैं जो समय के साथ विकसित हुए हैं। बुद्ध के घुँघराले केश घने हैं और सिर को तेज और रेखीय परत से ढके हुए हैं। मस्तक समतल है और उसमें बड़ी-बड़ी पुतलियाँ हैं और आँखें अधखुली दिखायी गयी हैं। चेहरा और कपोल भारत के अन्य भागों में पायी गयी प्रतिमाओं की तरह गोल नहीं है।
गान्धार क्षेत्र की आकृतियों में कुछ भारीपन दिखायी देता है। कान और विशेष रूप से उनके लटके हुए भाग (ललरी) लंबे हैं। रूप के प्रस्तुतीकरण में रैखिकता है और बाहरी रेखाएँ तीखी हैं। सतह समतल है। आकृति बहुत भावाभिव्यंजक है।
प्रकाश और अंधेरे के पारस्परिक प्रभाव पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है जिसके लिये नेत्र-कोटरों को मोड़कर तलों और नाक के तलों का उपयोग किया गया है। प्रशांतता (Calmness) की अभिव्यक्ति आकर्षण का केंद्र बिंदु है। मुखमंडल प्रतिरूपण त्रि-आयामिता (three-dimensionality) की स्वाभाविकता बढ़ा रहा है।
तपस्यारत उपवासी बुद्ध
इन मूर्तियों के साथ ही साथ बुद्ध के जीवन तथा पूर्व जन्मों से सम्बन्धित विविध घटनाओं के दृश्यों; यथा— महामाया का स्वप्न, उनका गर्भधारण करना, महामाया का कपिलवस्तु से लुम्बिनी उद्यान में जाना, सिद्धार्थ का जन्म, लुम्बिनी से कपिलवस्तु वापस लौटना, अस्ति द्वारा कुण्डली फल बताना, सिद्धार्थ का बोधिसत्व रूप, पाठशाला में बोधिसत्व की शिक्षा, लिपि विज्ञान में सिद्धार्थ की परीक्षा, उनकी मल्ल तथा तीरन्दाजी में परीक्षा, यशोधरा से विवाह, देवताओं द्वारा संसारत्याग हेतु सिद्धार्थ से प्रार्थना, सिद्धार्थ का कपिलवस्तु छोड़ना, कन्थक से विदा लेना, बुद्ध के दर्शन हेतु मगधराज बिम्बिसार का आना, सम्बोधि प्राप्त के पहले की विविध स्थितियाँ, देवताओं द्वारा बुद्ध से धर्मोपदेश के लिये प्रार्थना करना, धर्मचक्रप्रवर्तन, बुद्ध का कपिलवस्तु आगमन तथा राहुल को भिक्षु की दीक्षा देना, नन्द सुन्दरी कथानक, बुद्ध पर देवदत्त के प्रहार, श्रावस्ती में अनाथपिण्डक द्वारा विहार का दान, नलगिरि हाथी को वश में करना, अंगुलिमाल का आत्मसमर्पण, किसी स्त्री के मृत शिशु की घटना, आनन्द को सान्त्वना देना, इन्द्र और पंचशिख गन्धर्व द्वारा भगवान बुद्ध का दर्शन, आम्रपाली द्वारा बुद्ध को आम्रवाटिका प्रदान करना, कुशीनगर में महापरिनिर्वाण, धातुओं का बँटवारा तथा धातु पात्र का हाथी की पीठ पर ले जाया जाना, धातु पूजा, त्रिरत्न पूजा सहित ६१ दृश्यों का अंकन इस शैली में किया गया है।
इससे ज्ञात होता है कि शिल्पी ने बुद्ध के लौकिक तथा पारलौकिक जीवन से सम्बन्धित प्रायः सभी छोटी-बड़ी घटनाओं को अत्यन्त बारीकी के साथ चित्रित किया है। इतना विशद चित्रांकन कहीं अन्यत्र नहीं प्राप्त होता है। कुछ दृश्य अत्यन्त कारुणिक एवं प्रभावोत्पादक हैं। तपस्यारत बुद्ध का एक दृश्य, जिसमें उपवास के कारण उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है, गान्धार कला के सर्वोत्तम नमूनों में से है। कलाकार को उपवासरत तपस्वी के शरीर का यथार्थ चित्रण करने में अद्भुत सफलता मिली है। नसों तथा पसलियों को अत्यन्त कुशलतापूर्वक उभारा गया है, पेट अन्दर धँसा हुआ है किन्तु मुखमण्डल की शान्ति, दृढ़ इच्छाशक्ति को प्रकट करती है।
इसी तरह बुद्ध से विदा लेते हुए उनके कन्थक नामक प्रिय अश्व का दृश्य काफी प्रभावोत्पादक है। उसके मुखमण्डल पर विदाई के विषाद तथा शोक के भाव को व्यक्त करने में कलाकार को अपूर्व सफलता मिली है।
बोधिसत्व मूर्तियों में सर्वाधिक मैत्रेय की प्राप्त होती हैं। साथ ही अवलोकितेश्वर तथा पद्मपाणि की मूर्तियाँ भी मिलती हैं। इन्हें हाथ में कमल, पुस्तक तथा अमृतकलश लिये हुए दर्शाया गया है। उनका स्वरूप राजसी है। कई मूर्तियों में दाढ़ी-मूँछ, धोती, संघाटी इत्यादि दिखाया गया है। गचकारी (stucco) की कई बुद्ध और बोधिसत्व मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं जो कलात्मक दृष्टि से अच्छी हैं। इसी का रूप मृण्मय मूर्तियों में दिखायी देता है जो सिंध तथा मीरपुर खास से प्राप्त हुई हैं।
अन्य मूर्तियाँ
बुद्ध तथा बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त गान्धार शैली की कुछ देवी-मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। इनमें हारीति तथा रोमा अथवा एथिना देवी की मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हारीति को मातृदेवी के रूप में पूजा जाता था तथा वह सौभाग्य तथा धन-धान्य की अधिष्ठात्री देवी हैं। वी० एस० अग्रवाल महोदय ने लाहौर संग्रहालय में सुरक्षित रोमा देवी की मूर्ति को गान्धार कला की सर्वोत्तम मूर्तियों में स्थान दिया है। इसे सिर पर टोप धारण किये हुए तथा हाथ में वर्छा लिये हुए दर्शाया गया है। उसके मुखमण्डल से तेज निकल रहा है।
हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों में पंचिक कुबेर, हारीति, इन्द्र, ब्रह्मा, सूर्य आदि का चित्रण इस कला में मिलता है। सहरी बहलोल से प्राप्त हारीति तथा कुबेर की एक युगल मूर्ति उत्कृष्ट कलाकृति है। यह पेशावर संग्रहालय में सुरक्षित है। शाहजी की ढेरी से प्राप्त कनिष्क मंजूषा के ऊपर बुद्ध के साथ इन्द्र तथा ब्रह्मा का चित्र एवं गान्धार से प्राप्त काले स्लेटी प्रस्तर की उत्कीर्ण सूर्य प्रतिमा, जिसमें सूर्य को चार अश्वों के रथ पर आसीन दिखाया गया है, भी काफी मनोहारी है। उनके दोनों ओर अनुचरों का अंकन किया गया है।
कपिशा (बेग्राम, अफगानिस्तान) से अनेक दन्तफलक मिले हैं जो कभी शृंगार पेटियों अथवा रत्नमंजूषाओं के अंग रहे होंगे। इन पर अनेक मुद्राओं एवं भंगिमाओं में सुन्दरियों का अंकन किया गया है। १९३७-३९ के मध्य फ्रांस के पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उत्खनन के दौरान इन्हें प्रकाशित किया था। इनमें शुक क्रीड़ा, हंस क्रीड़ा, नृत्य दृश्य, पानगोष्ठी, उड़ते हुए हंस, दर्पण निहारती आदि सुन्दरियों एवं प्रसाधिकाओं की आकृतियाँ अत्यन्त उत्कृष्ट हैं। कुछ फलक मथुरा शैली से मिलते-जुलते हैं। एक आकृति में बालक को गोद में लेकर स्तनपान कराती हुई नारी प्रदर्शित की गयी है। ये गान्धार कला शैली की मोहक आकृतियाँ हैं जिनमें तत्कालीन समाज के कुलीन तथा सामान्य वर्ग में प्रचलित वेशभूषा की जानकारी मिलती है। इन विविध दृश्यों पर भारतीय तथा सामान्य वर्ग में प्रचलित वेशभूषा की जानकारी मिलती है। इन विविध दृश्यों पर भारतीय तथा रोमन कला, दोनों का प्रभाव परिलक्षित होता है।
गान्धार कला की विशेषताएँ
गान्धार शैली की अधिकांश मूर्तियाँ लाहौर तथा पेशावर के संग्रहालयों में सुरक्षित है। इन मूर्तियों की कुछ अपनी अलग विशेषतायें भी हैं जिनके आधार पर वे स्पष्टतः भारतीय कला से अलग की जा सकती हैं।
इनमें मानव शरीर के यथार्थ चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया गया है। माँस-पेशियों, मूँछों, लहरदार बालों का अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से प्रदर्शन हुआ है। बुद्ध की वेष-भूषा यूनानी है, उनके पैरों में जूते दिखाये गये हैं, प्रभामण्डल सादा तथा अलंकरणरहित है और शरीर से अत्यन्त सटे अङ्ग-प्रत्यंग दिखाने वाले झीने वस्त्रों का अंकन हुआ है। उनके सिर पर घुँघराले बाल दिखाये गये हैं। इन सबका परिणाम यह है कि बुद्ध की मूर्तियाँ यूनानी देवता अपोलो की नकल प्रतीत होती हैं।
महात्मा बुद्ध की मूर्तियाँ अपने सूक्ष्म विस्तार के बावजूद मशीन से बनायी गयी प्रतीत होती हैं। इनमें वह सहजता तथा भावात्मक स्नेह नहीं है जो भरहुत, साँची, बोधगया अथवा अमरावती की मूर्तियों में दिखायी देता है। इसी कारण यह कहा जाता है कि इस शैली के कलाकार के पास “यूनानी का हाथ परन्तु भारतीय का हृदय था।”
वासुदेव शरण अग्रवाल (भारतीय कला) ने प्रतिमाशास्त्र की दृष्टि से गान्धार कला की निम्नलिखित विशेषताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है : बुद्ध के जीवन की घटनायें और बोधिसत्व की मूर्तियाँ, जातक कथायें, यूनानी देवी-देवता और गाथाओं के दृश्य, भारतीय देवी और देवता, वास्तु-सम्बन्धी विदेशी विन्यास, भारतीय अलंकरण एवं यूनानी, ईरानी और भारतीय अभिप्राय एवं अलंकरण।
गान्धार शैली में निर्मित बुद्ध तथा बोधिसत्व मूर्तियाँ ही विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। गान्धार की मूर्तियों में आध्यात्मिकता तथा भावुकता न होकर बौद्धिकता एवं शारीरिक सौन्दर्य की ही प्रधानता दिखायी देती है। इनके मुँह में बनायी गयी मूँछे तथा पैरों में दिखाये गये चप्पल से किसी प्रकार का भाव अथवा धार्मिक भावना प्रकट नहीं होती। ये अत्यन्त घटिया कोटि की हैं तथा भारतीय कलाकार ऐसी मूर्ति बनाने में कभी गर्व नहीं करते। अपने यूनानी स्वरूप के कारण यह भारतीय कला की मुख्य धारा से अलग-थलग रही तथा इसका क्षेत्र पश्चिमोत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहा। मार्शल महोदय ने यह सही ही लिखा है कि यूनानी तथा रोमन कलाओं ने गान्धार शैली को जन्म देने के अतिरिक्त भारतीय कला के ऊपर कभी भी वैसा प्रभाव उत्पन्न नहीं किया जैसा कि इटली अथवा पश्चिमी एशिया की कला के ऊपर। यूनान तथा भारत के दृष्टिकोण मूलरूप से भिन्न थे। यूनानी, मनुष्य के सौन्दर्य एवं बुद्धि को ही सर्वेसर्वा समझते थे। भारतीय दृष्टि में लौकिकता के स्थान पर अमरत्व तथा ससीम के स्थान पर असीम की प्रधानता थी। यूनानी विचार नैतिक एवं बुद्धिप्रधान था जबकि भारतीय विचार आध्यात्मिक एवं भावना-प्रधान था।*
“To the Greek man’s beauty and intellect were everything. The vision of the Indian was bounded by the immortal rather than the mortal, by the Infinite rather than Finite. While Greek thought was ethical, his was spiritual. When Greek was rational, He was emotional.”* — p. 43, A Guide to Taxila.
इस प्रकार गान्धार कला अपने विदेशी प्रभाव के फलस्वरूप भारतीय कला का सौन्दर्य विहीन रूप ही प्रतीत होती है।
कुमार स्वामी के शब्दों में “गान्धार की यथार्थवादी कला घोर पाखण्ड का आभास देती है क्योंकि बोधिसत्वों की संतुष्ट अभिव्यक्ति तथा किंचित् छैलछबीली वेषभूषा एवं बुद्ध मूर्तियों की स्त्रैण और निर्जीव मुद्रायें बौद्ध विचारधारा की आध्यात्मिक शक्ति का प्रकटीकरण नहीं कर पाती हैं।”*
“The actual art of Gandhar gives the impression of profound insincerity, for the complacent expression and somewhat foppish costume of the Bodhisattvas, the effeminate and listless gesture of the Buddha figures faintly express the spiritual energy of the Buddhist thought.”* — p. 323, Buddha and the Gospel of Buddhism.
परन्तु भारत के बाहर गान्धार कला का व्यापक प्रभाव रहा। इसने चीनी तुर्किस्तान, मंगोलिया, चीन, कोरिया तथा जापान की बौद्ध कला को जन्म दिया।
मार्शल के अनुसार गान्धार की पाषाण-कला का प्रारम्भ २५-६० ई० के मध्य पह्लव शासन काल में हुआ। द्वितीय शताब्दी में कुषाण काल में गान्धार कला का पूर्ण विकास हुआ तथा ससैनियन आक्रमण के परिणामस्वरूप इस कला का चतुर्थ शती ईस्वी के प्रारम्भ में ह्रास हो गया। कुषाण काल और विशेषकर कनिष्क का समय ही इस कला के चर्मोत्कर्ष का काल रहा। इस कला के ह्रास के साथ ही उसका स्थान अत्युत्कृष्ट गचकारी और मृण्मय कला ने ग्रहण कर लिया।
कुषाण राजवंश (The Kushan Dynasty) या कुषाण साम्राज्य (The Kushan Empire)
कुषाण-शासनतंत्र (The Kushan Polity)
कुषाणों का योगदान (Contribution of the Kushanas)
कुषाणकालीन आर्थिक समृद्धि या कुषाणकाल में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति