भूमिका
मथुरा कला, गान्धार कला इत्यादि की ही तरह ‘कौशाम्बी कला’ शैली के पृथक अस्तित्व की पहचान की गयी है। कुछ विद्वानों का विचार है कि मौर्योत्तर काल में कौशाम्बी में एक स्वतंत्र कला शैली का विकास हुआ।
कौशाम्बी कला का विकास
कौशाम्बी कला कहीं-कहीं तो मथुरा के समान थी साथ ही कहीं-कहीं उससे भिन्न भी थी। चूँकि मथुरा कला शैली का विस्तार और प्रभाव इतना अधिक था कि उसके आगे कौशाम्बी कला शैली का महत्त्व गौड़ सा हो गया और इसके स्वतंत्र रूप से स्थापित करने का प्रयास ही नहीं किया गया।
इधर हाल ही में आर० एन० मिश्र जैसे कुछ विद्वानों के प्रयास से कौशाम्बी शैली के पृथक अस्तित्व एवं विकास पर समुचित प्रकाश पड़ा है। (Art of Madhya-Desh: The Case of Kaushambi as a School — Indian Art and Culture; G. C. Pandey)
यहाँ की कलाकृतियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि इस शैली ने गंगा-यमुना के दोआब तथा बाह्य क्षेत्रों की कलात्मक गतिविधियों को पूर्णतः प्रभावित किया है। यह मथुरा शैली जैसी ओजपूर्ण तो नहीं थी परन्तु मूर्तियों की मौलिकता और सारगर्भिता की दृष्टि से उल्लेखनीय माना जा सकता है।
कौशाम्बी कला के विकसित होने में वहाँ की राजनीतिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों का प्रमुख योगदान रहा है। महाजनपदकाल में यहाँ वत्स राज्य की राजधानी थी।
भगवान बुद्ध ने यहाँ कई बार आकर स्वयं उपदेश दिये थे। यहाँ अनेक धनाढ्य श्रेष्ठि तथा व्यापारी यहाँ निवास करते थे जिनमें घोषित (घोषितराम) प्रमुख थे। कालान्तर में यहाँ ‘मघ’ राजाओं ने शासन किया।
यहाँ के उत्खनन से एक विशाल दुर्ग क्षेत्र घोषिताराम का विहार, प्रस्तर एवं मिट्टी की मूर्तियाँ, स्तूप की पाषाणवेदिका के टुकड़े, हारीति की समर्पित गजपृष्ठाकार (apsidal) मन्दिर के अवशेष, श्येनचितिवेदी तथा पुरुषमेध के प्रमाण इत्यादि प्राप्त होते हैं।
इन प्रस्तर प्रतिमाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भरहुत, साँची तथा बोधगया की भाँति ही यहाँ भी कलाकृतियों का सृजन किया जा रहा था और गुप्तकाल में कौशाम्बी भी अन्यान्य कला-केन्द्रों के ही समान एक अलग कला-केन्द्र के रूप में विकसित हो गया था।
कौशाम्बी वैदिक तथा श्रमण दोनों परम्पराओं का प्रचलन था। अतः कलाकृतियों की रचना में दोनों के तत्त्व ग्रहण किये गये। कौशाम्बी कला के तत्त्वों में मूर्तियाँ, स्तूप, वेदिकास्तम्भ, मृण्मूर्तियाँ आदि हैं।
ये कलाकृतियाँ मथुरा से भी प्राप्त होते हैं। परन्तु कौशाम्बी कलाकृतियों का अपना अलग ही अस्तित्व देखने को मिलता है। कुछ कला प्रतीक जैसे भागवत धर्म से सम्बन्धित ध्वज-स्तम्भ मथुरा से पूर्व ही यहाँ निर्मित किये गये। मथुरा में इनका निर्माण शक-कुषाण काल के बाद हुआ लेकिन मौर्यकाल के तत्काल बाद कौशाम्बी में इन्हें निर्मित किया गया।
कौशाम्बी से भागवत धर्म सम्बन्धित जो प्रस्तर प्रतिमायें प्राप्त होती हैं उन्हें मौर्यकालीन मूर्तियों के समान चुनार के बलुआ पत्थर से बनाया गया है साथ ही उनपर वैसी ही चमकीली पॉलिश है। इससे स्पष्ट होता है कि मथुरा से प्राप्त भागवत मूर्तियों के पूर्व कौशाम्बी में इनका निर्माण प्रारम्भ हुआ था। कौशाम्बी से ही सर्वप्रथम संकर्षण तथा प्रद्युम्न, जिनका उल्लेख चतुर्व्यूह में हुआ है, के लाञ्छन क्रमशः तालध्वज तथा मकरध्वज की भी प्राप्ति हुई है।
एक स्तम्भ के ऊपर प्रद्युम्न का अंकन उनकी पत्नी के साथ मिलता है। उनके दायें हाथ में वाणों का गुच्छा दिखाया गया है। इससे सूचित होता है कि मथुरा से पूर्व ही कौशाम्बी के कलाकारों के मस्तिष्क में कालान्तर के भागवत धर्म में प्रचलित चतुर्व्यह की कल्पना उत्पन्न हो चुकी थी जिसमें उक्त दोनों के अतिरिक्त अनिरूद्ध तथा वासुदेव की कल्पना हुई।
मूर्ति बनाने के पहले कौशाम्बी के कलाकारों ने देवता के प्रतीक का अंकन किया। अगास्थोक्लीज़ के सिक्कों (लगभग १८०-१६५ ई०पू०) पर भागवत देवताओं, चक्रधर कृष्ण तथा हलधर बलराम, की प्रतिमाएँ अंकित मिलती हैं जो कौशाम्बी की भागवत मूर्तियों के समान हैं। इनसे भी ज्ञात होता है कि कौशाम्बी कला मौर्य तथा कुषाण दोनों कालों के बीच के समय में विकसित हुई थी। अगास्थोक्लीज़ के सिक्कों के आधार पर कौशाम्बी कला भरहुत से भी पूर्ववर्ती प्रमाणित होती है।
कौशाम्बी से बहुसंख्यक मृण्मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। ये स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, मिथुन, हारीति, गजलक्ष्मी, सूर्य इत्यादि की हैं। ये मथुरा से प्राप्त मृण्मूर्तियों की अपेक्षा अधिक कुशलता से गढ़ी गयी हैं। इनका शरीर हृष्ट-पुष्ट है तथा मुखाकृतियाँ फूली हुई या गोल हैं। इससे स्पष्ट होता है कि कौशाम्बी की मृण्मूर्तियों के आधार पर ही यहाँ पाषाण मूर्तियाँ बनायी गयीं।
कौशाम्बी से शिव-पार्वती की एक प्रतिमा मिली है जो गुप्तकालीन प्रतिमाओं के सदृश सुन्दर और सजीव हैं। इसका समय कुषाण काल से पहले निर्धारित किया जाता है।
कौशाम्बी के मूर्ति निर्माण में मिट्टी से पाषाण में संक्रमण स्पष्टतः परिलक्षित होता है जोकि मथुरा-कला में अप्राप्य है।
कौशाम्बी के कलाकारों ने पहले गान्धार शैली के आधार पर बुद्ध एवं बोधिसत्व मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ किया, किन्तु शीघ्र ही वेषभूषा तथा संघाटि की एक नयी पद्धति को अपनाकार भिन्न प्रकार की मूर्तियों का निर्माण आरम्भ कर दिया। कौशाम्बी में १६१ ई० के लगभग बुद्ध मूर्तियाँ बननी प्रारम्भ हो गयी जिस पर मथुरा कला का भी प्रभाव था। परन्तु शीघ्र ही कलाकारों ने इस प्रभाव से मुक्त होकर मिट्टी की मूर्ति अपनी शैली में बनाना प्रारम्भ कर दिया।
उल्लेखनीय है कि गुप्तकालीन सारनाथ की बुद्ध मूर्ति में संघाटि दोनों कन्धों पर मिलती है। यह पद्धति कौशाम्बी में इसके पूर्व ही प्रचलन में आ गयी थी। अब यह कहा जा सकता है कि सारनाथ बुद्ध की वेशभूषा तथा संघाटि का आदि रूप कौशाम्बी में ही विद्यमान था। प्रतीकों के स्थान पर मूर्तियों के निर्माण की प्रथा भी सबसे पहले कौशाम्बी में ही प्रारम्भ हुई जहाँ इसके लिये अनुकूल आधार था।
मथुरा तथा कौशाम्बी, दोनों ही स्थानों पर, यक्ष मूर्तियाँ मिलती है, परन्तु कौशाम्बी की यक्ष मूर्तियाँ कुछ भिन्न प्रकार की है। भीटा तथा कौशाम्बी से प्राप्त यक्ष मूर्तियों पर मथुरा शैली का कोई प्रभाव नहीं है। भीटा की यक्ष मूर्ति में तीन यक्ष दिखाये गये हैं। इनके बगल में एक सिंह तथा वाराह की मूर्ति है। कौशाम्बी की मूर्ति, जो बैठी हुई मुद्रा में है, में पैरों के मध्य वाराह का अंकन है।
कौशाम्बी की ‘शिव-पार्वती’ प्रतिमा में शिव के जटाजूट, त्रिनेत्र, कान, होंठ, ठुड्डी के बीच हल्का गड्डा मिलता है जो गुप्तकाल की विशेषता है। इससे सूचित होता है कि शिव प्रतिमा के ये लक्षण गुप्त युग से पूर्व ही कौशाम्बी में अपना लिये गये थे।
कौशाम्बी से एक ऐसी देवी की मूर्ति मिली है जिसकी केश-सज्जा में पाँच प्रतीक खुसे हुए है। यह अपने आप में विशिष्ट है। कौशाम्बी की मूर्तियों में एक ऐसी अनौपचारिकता का वातावरण है जो प्राचीन लोककला के निकट है।
कौशाम्बी के दक्षिण में भरहुत का प्रसिद्ध कला केन्द्र था। के० डी० वाजपेयी का मत है कि कौशाम्बी की कला भरहुत की पूर्ववर्ती है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, कौशाम्बी कला का प्रभाव अगास्थोक्लीज़ के सिक्कों पर भी पड़ा तथा यहाँ की मूर्तियों पर तिथियाँ अंकित मिलती है। मनकुँवर से प्राप्त बुद्ध प्रतिमा तिथियुक्त है जो गुप्त शैली से भिन्न है। इससे कौशाम्बी कला का काल भरहुत से पहले सिद्ध होता है।
इसी तथ्य के प्रमाण में प्रतापगढ़ जनपद के अजगरा लेख का साक्ष्य भी प्रस्तुत किया जा सकता है जिससे सूचित होता है कि सुदर्शना यक्षिणी का मूल स्थान कौशाम्बी क्षेत्र के अन्तर्गत ही आता था, भरहुत के नहीं। यह सुदर्शना के सम्मान में एक ‘यक्षमह’ बनाने तथा तालाब खुदवाने का उल्लेख करता है। इससे भी संकेत मिलता है कि कौशाम्बी की कला भरहुत की पूर्ववर्ती है। मालवा के समान कौशाम्बी में भी मणिभद्र की पूजा होती थी। उसे कुबेर का कोषाध्यक्ष माना गया है।
निष्कर्ष
इस विवरण से स्पष्ट है कि कौशाम्बी को एक पृथक कला केन्द्र मानने में कोई आपत्ति नहीं है। बुद्ध काल में यह अत्यन्त समृद्धशाली नगर हो गया था जिसकी गणना बौद्ध साहित्यों में बुद्ध के समकालीन छः महानगरों में की गयी है। इसमें कौशाम्बी के अतिरिक्त चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत तथा वाराणसी सम्मिलित थे। सर्वत्र नगरीकरण प्रस्फुटित हुआ जिसका प्रमुख आधार व्यापार-वाणिज्य बना। व्यापारियों द्वारा कला को प्रोत्साहन दिया जाना स्वाभाविक था।
कौशाम्बी में बौद्ध धर्म के साथ-साथ हिन्दू वैष्णव या भागवत एवं शैव धर्मों का भी प्रचलन था तथा दोनों के अनुयायी निवास करते थे। अतः कलाकारों ने दोनों धर्मों के उपासकों की धार्मिक तृष्णा की तुष्टि के लिये कृतियों का निर्माण किया तथा यहाँ एक ऐसी कला शैली उद्भूत हो गयी जिसका समीपवर्ती क्षेत्रों की कला पर भी प्रभाव पड़ा। निष्कर्ष रूप में यह निश्चयतः मथुरा एवं भरहुत शैली की पूर्ववर्ती थी तथा इसके प्रतिमा लक्षण गुप्तकालीन प्रतिमाओं में भी ग्रहण किये गये।
इस प्रकार कुषाण काल पाषाण शिल्प की उन्नति की दृष्टि से काफी गौरवशाली रहा। परन्तु इस समय मृण्मूर्तियों का निर्माण उतना अच्छा नहीं हुआ। मथुरा, अहिच्छत्र आदि स्थानों से काफी कम संख्या में मृण्मूर्तियाँ मिलती है तथा कौशाम्बी में तो इनका अभाव सा है।
कनिष्क विद्वानों का संरक्षक और उसके समय साहित्यिक प्रगति
कुषाणकालीन आर्थिक समृद्धि या कुषाणकाल में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति
कुषाणों का योगदान (Contribution of the Kushanas)
कुषाण-शासनतंत्र (The Kushan Polity)
कुषाण राजवंश (The Kushan Dynasty) या कुषाण साम्राज्य (The Kushan Empire)