कुमारगुप्त प्रथम ‘महेन्द्रादित्य’ (≈ ४१५-४५५ ईस्वी)

भूमिका 

चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ के बाद कुमारगुप्त प्रथम ‘महेन्द्रादित्य’ गुप्त-साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। वह चन्द्रगुप्त की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न उसका सबसे बड़ा पुत्र था। उसका गोविन्दगुप्त नामक एक छोटा भाई भी था जो कुमारगुप्त के समय में बसाढ़ (वैशाली) का राज्यपाल था। कुछ विद्वानों का विचार है कि गोविन्दगुप्त तथा कुमारगुप्त प्रथम के बीच उत्तराधिकार का कोई युद्ध हुआ तथा कुमारगुप्त ने गोविन्दगुप्त को बलपूर्वक हटाकर राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया था। किन्तु इस प्रकार की मान्यता के लिये कोई आधार नहीं है।

“महाराजाधिराज-श्री चन्द्रगुप्त-पुत्रस्य। महादेव्यां ध्रुवदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजाधिराज-श्रीकुमारगुप्तस्याभि [ व ]”

—पंक्ति संख्या ५, ६; बिलसड़ स्तम्भ लेख

कुमारगुप्त ने कुल ४० वर्षों (४१५-४५५ ईस्वी) तक शासन किया। इस दीर्घकाल में यद्यपि उसने कोई विजय नहीं की तथापि उसके शासन-काल का महत्त्व इस बात में है कि उसने अपने पिता से जिस विशाल साम्राज्य को उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, उसे अक्षुण्ण बनाये रखा तथा अपने विशाल साम्राज्य में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा। उसके सुव्यवस्थित शासन का वर्णन मन्दसोर अभिलेख में इस प्रकार मिलता है— “कुमारगुप्त एक ऐसी पृथ्वी पर शासन करता था जो चारों समुद्रों से घिरी हुई थी, सुमेरु तथा कैलाश पर्वत जिसके वृहत् पयोधर के समान थे, सुन्दर वाटिकाओं में खिले फूल जिसकी हँसी के समान थे।”

“चतुरस्समुद्राम्बु-विलोल-मे [ खलां ] सुमेरु-कैलास-बृहत्पयोधराम् [ । ]

वनान्त-वान्त-स्फुट-पुष्प-हासिनीं कुमारगुप्ते प्रिथिवीं-प्रशासति [ ॥ ]

समान-धीश्शुक्र-वृहस्पतिभ्यां ललामभूतो भुवि”

मन्दसौर अभिलेख

संक्षिप्त परिचय

नामकुमारगुप्त प्रथम
पिताचन्द्रगुप्त द्वितीय
माताध्रुवदेवी
पत्नीअनन्त देवी
पुत्रस्कन्दगुप्त
पुरुगुप्त
पूर्ववर्ती शासकचन्द्रगुप्त द्वितीय
उत्तराधिकारीस्कन्दगुप्त
शासनकाल४१४ ई० – ४५५ ई०
विरुदअजितमहेन्द्र, अप्रतिघ, अश्वमेधमहेन्द्र, परमदैवत, परमभट्टारक, महाराजाधिराज, महेन्द्रादित्य, महेन्द्रसिंह, श्रीमहेन्द्र
अभिलेखबिलसड़ स्तम्भ-लेख
गढ़वा अभिलेख
उदयगिरि गुहालेख (तृतीय)
मथुरा जैन मूर्ति लेख
धनैदह ताम्र-लेख
गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेख
तुमैन अभिलेख
मन्दसौर अभिलेख
करमदण्डा लिंग-लेख
कुलाईकुरै ताम्र-लेख
दामोदरपुर ताम्र-लेख (प्रथम)
मथुरा बुद्ध-मूर्ति-पीठ लेख
दामोदरपुर ताम्र-लेख (द्वितीय)
बैग्राम ताम्र-पत्र
जगदीशपुर ताम्र-लेख
मनकुँवर बुद्ध-प्रतिमा लेख
साँची प्रस्तर-लेख
मथुरा मूर्ति-लेख
सिक्केस्वर्ण सिक्के (दीनार), १४ प्रकारधनुर्धारी प्रकार (Archer Type)
अश्वारोही प्रकार (Horseman Type)
खड्गधारी प्रकार (Swordman Type)
सिंह-निहंता प्रकार (Lion-slayer Type)
व्याघ्र-निहंता प्रकार (Tiger-slayer Type)
गजारोही प्रकार (Elephant-rider Type)
गजारूढ़-सिंह-निहंता प्रकार (Elephant-rider Lion-slayer Type)
खङ्गनिहंता प्रकार (Rhinoceros-slayer Type)
अश्वमेध प्रकार (Ashvamedha Type)
कार्तिकेय प्रकार (Kartikeya Type)
छत्रधारी प्रकार (Chhatra Type)
अप्रतिघ प्रकार (Apratigha Type)
वीणावादन प्रकार (Lyrist Type)
राजा-और-रानी प्रकार (King ang Queen Type)
रजत सिक्के (रूप्यक)
ताम्र सिक्के (माषक)

इतिहास के साधन

कुमारगुप्त प्रथम ‘महेन्द्रादित्य’ के इतिहास निर्माण के अधोलिखित साधन हैं—

अभिलेख

कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेख

कुमारगुप्त प्रथम के अब तक कुल अ‌ट्ठारह अभिलेख प्राप्त हुये हैं। इतने अधिक अभिलेख किसी भी अन्य गुप्त सम्राट के नहीं मिलते। इन अभिलेखों का विवरण इस प्रकार है—

बिलसड़ स्तम्भ-लेखयह कुमारगुप्त के शासन काल का प्रथम अभिलेख है।
इस पर गुप्त सम्वत् ९६ (४१५ ई०) की तिथि अंकित है।
बिलसड़ उत्तर प्रदेश के एटा जनपद में स्थित है।
इसमें कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तों की वंशावली प्राप्त होती है।
इस लेख में ध्रुवशर्मा नामक एक ब्राह्मण के द्वारा स्वामी महासेन (कार्तिकेय) के मन्दिर तथा धर्म संघ बनवाये जाने का उल्लेख मिलता है।
गढ़वा अभिलेखगढ़वा प्रयागराज जनपद में स्थित है।
गढ़वा से कुल ५ अभिलेख मिले हैं। जिन्हें गढ़वा अभिलेख प्रथम (दो भाग), द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ कहा गया है।
गढ़वा के प्रथम अभिलेख के दो भाग हैं— गढ़वा अभिलेख ‘प्रथम-क’ और गढ़वा अभिलेख ‘प्रथम-ख’। इसमें से गढ़वा अभिलेख ‘प्रथम-ख’ पर गुप्त सम्वत् ९८ (४१७ ई०) अंकित है।
गढ़वा अभिलेख तृतीय पर गुप्त सम्वत् ९८ (४१७ ई०) अंकित है।
गढ़वा अभिलेख चतुर्थ पर गुप्त सम्वत् ९९ (४१८ ई०) अंकित है।
गढ़वा अभिलेख ‘प्रथम-क’ और गढ़वा अभिलेख द्वितीय की तिथि मिट जाने के कारण अज्ञात है।
ये सभी अभिलेख दान से सम्बन्धित हैं।
उदयगिरि गुहालेख (तृतीय)उदयगिरि, विदिशा जनपद; मध्य प्रदेश।
गुप्त सम्वत्— १०६ या ४२५ ई०।
जैन धर्म से सम्बन्धित है।
इसमें शंकर नामक व्यक्ति द्वारा इस स्थान में पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित किये जाने का विवरण सुरक्षित है।  
मथुरा जैन मूर्ति लेखकंकाली टीला, मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश।
गुप्त सम्वत् – १०७ या ४२६ ई०।
जैन मूर्ति की स्थापना। इसकी स्थापना सामाढ्या नामक स्त्री द्वारा कराया गया।
धनैदह ताम्र-लेखधनैदह गाँव, नाडोर तहसील, राजशाही जनपद, बाँग्लादेश।
गुप्त सम्वत् – ११३ या ४३२ ई०।
इसमें कुमारगुप्त के लिये परमभागवत, महाराजाधिराज के साथ ‘परमदैवत’ विरुद द्रष्टव्य है।
इसमें ‘अक्षयनीवि दान’ का विवरण मिलता है।
गोविन्द नगर बुद्ध-मूर्ति लेखगोविन्द नगर, मथुरा जनपद, उत्तर प्रदेश।
गुप्त सम्वत् – ११५ या ४३४ ई०।
बौद्ध-मूर्ति की स्थापना की विज्ञप्ति।
तुमैन अभिलेखतुमैन (तुमेन) ग्राम, अशोक नगर जनपद, मध्य प्रदेश।
गुप्त सम्वत् – ११६ या ४३५ ई०।
गुप्त राजवंश की वंशावली।
[भगवान विष्णु के] मंदिर के निर्माण की विज्ञप्ति।
इसमें कुमारगुप्त को ‘शरद्-कालीन सूर्य की भाँति’ बताया गया है।
मन्दसौर अभिलेखमन्दसौर (प्राचीन दशपुर), शिवाना नदी के तट पर महादेव घाट की सीढ़ी, मध्य प्रदेश।
मालव सम्वत् ४९३ (४३६ ई०) और ५२९ (४७२ ई०)।
सूर्य मंदिर का निर्माण और पुनर्निर्माण का विवरण।
वत्सभट्टि (रचयिता) और बन्धुवर्मा (राज्यपाल) का उल्लेख।
करमदण्डा लिंग-लेखभराठीडीह टीला, करमदण्डा ग्राम, अयोध्या जनपद, उत्तर प्रदेश।
गुप्त सम्वत् ११७ (४३६ ई०)।
शिवलिंग की स्थापना का विवरण।
महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त के मंत्री कुमारामात्य और बलाधिकृत पृथ्वीषेण का उल्लेख।
कुलाईकुरै ताम्र-लेखकुलाईकुरै ग्राम, बगुड़ा; बाँग्लादेश।
गुप्त सम्वत् १२० (४३९ ई०)।
भूमि क्रय करके दान करने से सम्बन्धित।
दामोदरपुर ताम्र-लेख (प्रथम)दामोदरपुर, रंगपुर जनपद, बाँग्लादेश।
गुप्त सम्वत् १२४ (४४३-४४ ई०)
भूमि क्रय करके से सम्बन्धित।
विषय की प्रशासनिक जानकारी का स्रोत।
मथुरा बुद्ध-मूर्ति-पीठ लेखमथुरा, उत्तर प्रदेश।
गुप्त सम्वत् १३५ (४५४ ई०)।
विहारस्वमिनी द्वारा भगवान बुद्ध की मूर्ति के निर्माण की विज्ञप्ति।
दामोदरपुर ताम्र-लेख (द्वितीय)दामोदरपुर, रंगपुर जनपद, बाँग्लादेश।
गुप्त सम्वत् १२८ (४४७-४८ ई०)
भूमि क्रय करके दान करने से सम्बन्धित।
विषय (जनपद) की प्रशासनिक जानकारी का स्रोत।
बैग्राम ताम्र-पत्रबैग्राम, दीनाजपुर जनपद; बाँग्लादेश।
गुप्त सम्वत् १२८ (४४७-४८ ई०)।
भूमि क्रय करके भगवान् गोविन्द स्वामी के देवकुल के जीर्णोद्धार व पूजा-पाठ के लिये दान करने से सम्बन्धित।
यह लेख गुप्तकालीन भूमि व्यवस्था के अध्ययन के लिये महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
जगदीशपुर ताम्र-लेखजगदीशपुर; बाँग्लादेश।
गुप्त सम्वत् १२८ (४४७-४८ ई०)।
धार्मिक कार्य के लिये भूमि विक्रय की विज्ञप्ति।
मनकुँवर बुद्ध-प्रतिमा लेखमनकुँवर, प्रयागराज जनपद, उत्तर प्रदेश।
गुप्त सम्वत् १२९ (४४८-४९ ई०)
भिक्षु बुद्धमित्र द्वारा भगवान बुद्ध की प्रतिमा की स्थापना से सम्बन्धित विज्ञप्ति।
साँची प्रस्तर-लेखसाँची, रायसेन जनपद, मध्य प्रदेश।
गुप्त सम्वत् १३१ (४५०-५१ ई०)।
हरिस्वामिनी द्वारा १२ दीनार का अक्षयनीवी दान।
मथुरा मूर्ति-लेखमथुरा, उत्तर प्रदेश।
गुप्त सम्वत् १३५ (४५४ ई०)।
विहारस्वमिनी द्वारा भगवान बुद्ध की मूर्ति के निर्माण की विज्ञप्ति।

सिक्के

कुमारगुप्त प्रथम के स्वर्ण सिक्के

कुमारगुप्त प्रथम का लंबा ४० वर्षीय शासनकाल समृद्ध (prosperous) था। कुमारगुप्त प्रथम के द्वारा जारी किये गये स्वर्ण सिक्कों के प्रकारों की संख्या उनके पिता (चंद्रगुप्त द्वितीय) और पितामह (समुद्रगुप्त) द्वारा जारी किये गये सिक्का-प्रकारों का संयुक्त योग है। कुमारगुप्त प्रथम के अब तक १४ विभिन्न प्रकार के सिक्के प्राप्त हुए हैं—

  1. धनुर्धारी प्रकार (Archer Type)
  2. अश्वारोही प्रकार (Horseman Type)
  3. खड्गधारी प्रकार (Swordman Type)
  4. सिंह-निहंता प्रकार (Lion-slayer Type)
  5. व्याघ्र-निहंता प्रकार (Tiger-slayer Type)
  6. गजारोही प्रकार (Elephant-rider Type)
  7. गजारूढ़-सिंह-निहंता प्रकार (Elephant-rider Lion-slayer Type)
  8. खङ्गनिहंता प्रकार (Rhinoceros-slayer Type)
  9. अश्वमेध प्रकार (Ashvamedha Type)
  10. कार्तिकेय प्रकार (Kartikeya Type)
  11. छत्रधारी प्रकार (Chhatra Type)
  12. अप्रतिघ प्रकार (Apratigha Type)
  13. वीणावादन प्रकार (Lyrist Type)
  14. राजा-और-रानी प्रकार (King ang Queen Type)

एक और प्रकार का सिक्का प्राप्त हुआ है, यद्यपि इस प्रकार पर प्रश्न चिह्न  है— पृष्ठोत्थापित गरुड़ प्रकार (Garuda with out-stretched Wing Type)।

कुमारगुप्त प्रथम ने अपने पिता (चंद्रगुप्त द्वितीय) के शासनकाल में लोकप्रिय “धनुर्धारी”, “अश्वारोही”, “सिंह-निहंता” और “छत्रधारी” प्रकार के सिक्कों को जारी रखा। हालाँकि उनका “छत्रधारी” प्रकार अत्यंत दुर्लभ है। उन्होंने अपने पितामह (समुद्रगुप्त) के “अश्वमेध”, “वीणावादन” और “व्याघ्र-हनन” प्रकार के सिक्कों को पुनर्जीवित किया और अपने प्रपितामह (great-grand-father) चंद्रगुप्त प्रथम  के “राजा-और-रानी” (King-and-Queen) प्रकार को भी पुनर्जीवित किया।

कुमारगुप्त प्रथम ने कई नये प्रकार के सिक्के भी ढलवाये। उनका “कार्तिकेय” प्रकार उस देवता को श्रद्धांजलि अर्पित करता है, जिनके नाम पर उनका नाम रखा गया था। उनका “खड्गधारी” या “तलवारबाज” (Swordsman) प्रकार सम्भवतः कुमारगुप्त प्रथम की तलवारबाजी में निपुणता और प्रसिद्धि को दर्शाता है। आखेट और मनोरंजन (sports) प्रकार में कुमारगुप्त प्रथम ने तीन नये प्रकार के सिक्के ढलवाये— “गजारोही” (Elephant-rider), “गैंडा-निहंता” (Rhinoceros-slayer) और “गजारोही-सिंह-निहंता” (Elephant-rider-Lion-slayer)।

जहाँ तक उस प्रकार का सवाल है जिसमें उन्हें अपनी छाती पर बाँहें मोड़े खड़ा दर्शाया गया है, उसकी पहेली अब भी अनसुलझी है। इसे सुविधा के लिए कभी “प्रताप” प्रकार कहा गया था, लेकिन अब इसके पीछे “अप्रतिघ” लेख पाया गया है। इसलिए जब तक इसकी पहेली सुलझती नहीं है तब तक इसे “अप्रतिघ” प्रकार कहा जा सकता है।

कुमारगुप्त प्रथम के स्वर्ण सिक्कों के पृष्ठभाग पर प्रायः देवी की आकृति अंकित मिलती है। हालाँकि “कार्तिकेय” प्रकार के सिक्कों पर देवी के स्थान पर देवता को चित्रित किया गया है, जबकि “अश्वमेध” प्रकार के सिक्कों पर देवी के स्थान पर मुकुटधारी रानी को चँवर लिए हुए, बलि के लिए तैयार घोड़े की सेवा में खड़े हुए दिखाया गया है।

अधिकांश सिक्कों पर देवी को कमलासीन दिखाया गया है, लेकिन कुछ सिक्कों में उन्हें बेंत निर्मित आसन (wicker stool) पर बैठा हुआ। कुछ में मोर को दाना खिलाते हुए दर्शाया गया है, जैसा कि “अश्वारोही”, “व्याघ्र-निहंता” और “गजारोही-सिंह-निहंता” प्रकार के सिक्कों पर देखा जाता है।

  • कमलासना देवी का चित्रण “धनुर्धारी”, “खड्गधारी” और “अप्रतिघ” प्रकार के सिक्कों पर मिलता है।

“व्याघ्र-निहंता” प्रकार में देवी को सिंह पर आरूढ़ प्रदर्शित किया गया है, जो एक पुरानी परंपरा का अनुसरण करता है। “गजारोही” प्रकार के सिक्कों पर देवी को सामने खड़ी मुद्रा में दिखाया गया है।

स्वर्ण सिक्कों के अतिरिक्त कुमारगुप्त प्रथम के रजत और ताम्र सिक्के प्राप्त होते हैं।

कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल के अंत में काफी समस्याएँ उत्पन्न हुईं। हूणों के आक्रमण ने साम्राज्य को गहरा आघात पहुँचाया और उसके राजकोष को निःसंदेह क्षति पहुँचाई। हालाँकि विशुद्ध स्वर्ण मुद्राओं से यह आभास नहीं मिलता है। दूसरे शब्दों में आर्थिक क्षति ने कुमारगुप्त प्रथम को मिश्रित स्वर्ण मुद्राएँ जारी करने के लिए प्रेरित नहीं किया। लेकिन आर्थिक क्षति के कारण कुमारगुप्त प्रथम को चाँदी के सिक्कों के रूप में चाँदी की परत चढ़ी हुई ताँबे की मुद्राएँ जारी करने की अनुमति देनी पड़ी।

मुद्राओं पर उसकी उपाधियाँ महेन्द्रादित्य, श्रीमहेन्द्र, महेन्द्रसिंह, अश्वमेधमहेन्द्र आदि उत्कीर्ण मिलती है।

शासन-काल

अभिलेखों तथा सिक्कों पर उत्कीर्ण तिथियों से कुमारगुप्त प्रथम के शासन की अवधि निर्धारित करने में मदद मिलती है—

शासन का आरम्भ

  • उसके शासन काल की प्रथम तिथि गुप्त संवत् ९६ है। अर्थात् ९६ + ३१९ = ४१५ ईस्वी से कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल प्रारम्भ हुआ।
  • यह तिथि हमें बिलसड़ स्तम्भ-लेख से ज्ञात होती है।
  • इससे निष्कर्ष निकलता है कि वह १४५ ईस्वी में सिंहासन पर बैठा था।

शासन का अन्त

  • कुमारगुप्त प्रथम की अन्तिम तिथि गुप्त संवत् १३६ अर्थात् १३६ + ३१९ = ४५५ ईस्वी है। यह तिथि हमें तीन स्रोतों से ज्ञात होती है—
    • मथुरा मूर्ति-लेख की तिथि गुप्त संवत् १३५ (१३५ + ३१९ = ४५४ ई०) है और यह कुमारगुप्त प्रथम का अंतिम अभिलेख है।
    • कुमारगुप्त प्रथम के उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त का पहला ज्ञात अभिलेख जूनागढ़ प्रशस्ति है।
    • स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ प्रशस्ति की तिथि गुप्त संवत् १३६ (१३६ + ३१९ = ४५५ ई०) है। इस आधार पर कुमारगुप्त प्रथम के शासन के अन्त की तिथि गुप्त संवत् १३५ या १३६ (४५४ ई० या ४५५ ई०) माना जा सकता है।उसके चाँदी के सिक्कों से यह तिथि गुप्त संवत् १३६ अर्थात् १३६ + ३१९ = ४५५ ईस्वी ज्ञात होती है।
  • इस तरह कुमारगुप्त प्रथम के मथुरा मूर्ति-लेख, स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख और उसके चाँदी के सिक्कों को मिलाकर समीक्षा करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कुमारगुप्त प्रथम का शासन अवश्य ही गुप्त संवत् १३६ (४५५ ई०) तक समाप्त हो गया होगा।

इस प्रकार ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने ४१५ से ४५५ ईस्वी अर्थात् कुल ४० वर्षों तक शासन किया।

विजयें

कुमारगुप्त प्रथम को अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय और पितामह समुद्रगुप्त से उत्तराधिकार के रूप में एक विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ था। उनके सैन्य उपलब्धियों के बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनके शासनकाल के दौरान जारी किये गये शिलालेख मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में मिले हैं, जबकि उनके पुत्र स्कन्दगुप्त का एक शिलालेख गुजरात में पाया गया है। इसके अतिरिक्त उनके गरुड़-चिह्नित सिक्के पश्चिमी भारत में और उनके मोर-चिह्नित सिक्के गंगा घाटी में मिले हैं। इससे संकेत मिलता है कि वे अपने विरासत में प्राप्त विस्तृत क्षेत्र पर नियंत्रण बनाये रखा।

यद्यपि उसकी किसी भी सैनिक उपलब्धि की सूचना हमें लेखों अथवा सिक्कों से प्रत्यक्ष रूप से नहीं मिलती। परन्तु सीधे ही यह कह देना कि कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल सैन्य गतिविधियों शून्य था, अतार्किक है। हमें कई प्रत्यक्ष साक्ष्यों से उसके सैन्याभियानों की सूचना देते हैं।

  • उसका नाम तो ‘कुमार’ तो था ही साथ ही उसके ‘कार्तिकेय’ प्रकार के स्वर्ण सिक्के भी प्राप्त होते हैं। कुमार युद्ध के देवता कार्तिकेय का पर्यायवाची है। इससे उसकी युद्ध-प्रियता का आभास तो मिलता ही है।
  • उनके ‘अश्वमेध’ प्रकार के स्वर्ण मुद्राओं से संकेत मिलता है कि उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया था, जिसका उपयोग प्राचीन राजा अपनी सार्वभौमिकता सिद्ध करने के लिए करते थे। इससे ज्ञात होता है कि यदि उसने कोई सैन्याभियान न भी किया हो तो भी अश्वमेध यज्ञ से उसने अपनी सैन्य शक्ति का आभास तो दिलाया ही था। 
  • इतने विस्तृत साम्राज्य को लगभग ४० वर्षों तक (४१५ ई० – ४५५ ई०) शान्ति और सुव्यवस्था बनाये रखना प्रशासनिक और सैन्य-कुशलता का ही परिणाम था।
  • उसके कुछ सिक्कों के ऊपर “व्याघ्रबलपराक्रमः” अर्थात ‘व्याघ्र के समान बल एवं पराक्रम वाला’ की उपाधि अंकित मिलती है। रायचौधरी ने इस आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि कुमारगुप्त प्रथम अपने पितामह (समुद्रगुप्त) के समान दक्षिणी अभियान पर गया तथा नर्मदा नदी को पार कर व्याघ्र वाले जंगली क्षेत्रों को अपने अधीन करने का प्रयास किया।
  • महाराष्ट्र के सतारा जनपद से उसकी १३९५ मुद्रायें मिलती हैं। उसकी १३ मुद्रायें एलिचपुर (बरार) से मिलती हैं। परन्तु मात्र सिक्कों के आधार पर ही हम उसकी विजय का निष्कर्ष नहीं निकाल सकते।
  • उनके दक्षिण गुजरात में पाये गये सिक्के त्रैकुटक वंश द्वारा जारी किये गये सिक्कों से मिलते-जुलते हैं, जो इस क्षेत्र पर शासन करते थे। इससे यह सुझाव दिया गया है कि कुमारगुप्त प्रथम ने त्रैकुटकों को पराजित किया होगा। हालाँकि, निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि यह सैन्य विजय का परिणाम था या अन्य राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से नियंत्रण स्थापित हुआ। गुप्त साम्राज्य में सैन्य अभियानों के साथ-साथ कूटनीतिक सम्बन्ध भी महत्त्वपूर्ण थे, इसलिए यह सम्भव है कि उन्होंने इस क्षेत्र पर अपने प्रभाव को किसी समझौते के माध्यम से भी बढ़ाया हो।
  • राधामुकुद मुखर्जी ने इसी प्रकार खङ्ग-निहन्ता प्रकार के सिक्कों (जिनमें कुमारगुप्त को गैंडा मारते हुए दिखाया गया है) के आधार पर उसकी असम विजय का निष्कर्ष निकाला है क्योंकि गैंडा असम में ही पाये जाते हैं। परन्तु जैसा कि हमें ज्ञात है कि प्रयाग-प्रशस्ति की २२वीं पंक्ति में कामरूप का वर्णन प्रत्यन्त (सीमावर्ती) राज्य के रुप में मिलता है जो समुद्रगुप्त की सम्प्रभुता को स्वीकार करते थे। मेहरौली लौह-स्तम्भ लेख में चन्द्र (- गुप्त) द्वितीय ने वंग के एक सामूहिक संघ को पराजित किया था। सम्भव है कि कुमारगुप्त द्वितीय ने असम के ब्रह्मपुत्र घाटी या कामरूप की विजय करके उसके उपलक्ष में ‘खङ्ग-निहन्ता’ प्रकार के सिक्के चलाये हों।

पुष्यमित्र जाति का आक्रमण

कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसके शासन के प्रारंभिक वर्ष नितांत शान्तिपूर्ण रहे और वह व्यवस्थित ढंग से शासन करता रहा। उसके शासन के अन्तिम दिनों में “पुष्यमित्र” नामक जाति ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुमारगुप्त प्रथम के पुत्र स्कन्दगुप्त के भितरी लेख में इस आक्रमण का उल्लेख मिलता है।

पुष्यमित्रों की सैन्य शक्ति और संपत्ति बहुत अधिक थी। इस आक्रमण से “गुप्तवंश की राजलक्ष्मी विचलित हो उठीं तथा स्कंदगुप्त को पूरी रात पृथ्वी पर ही जागकर बितानी पड़ी थी।”

“विचलित-कुल-लक्ष्मी-स्तम्भनायोद्यतेन, क्षितितल-शयनीये येन नीता त्रियामा [।]

समुदित ब[ल]कोशन्-राष्ट्र-मित्राणियक्त्वा, क्षितिप-चरण-पीठे स्थापितो वाम-पादः [॥]”

—पंक्ति संख्या- १०, ११; श्लोक संख्या- ४; भीतरी स्तम्भ-लेख

दुर्भाग्यवश हमें इस आक्रमण का स्पष्ट विवरण अन्यत्र नहीं मिलता।

एच० आर० दिवेकर महोदय ने भीतरी लेख में ‘पुष्यमित्रांश्च’ के स्थान पर ‘युद्धमित्रांश्च’ पाठ पढ़ा है तथा यह प्रतिपादित किया है कि यहाँ किसी जाति के आक्रमण का उल्लेख न होकर साधारण शत्रुओं का ही वर्णन हुआ है।

  • H. R. Divekar, Journal of Bhandarkar Research Institute, 1919-20

परन्तु इस मत से सहमत होना कठिन है। विभिन्न स्रोतों से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में पुष्यमित्र नामक जाति थी। वायु पुराण तथा जैन कल्प सूत्र में इस जाति का उल्लेख मिलता है। वे नर्मदा नदी के मुहाने के समीप “मेकल” में शासन करते थे।

वस्तुस्थिति कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि आक्रमणकारी बुरी तरह परास्त हुये और उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो सकी। परन्तु इस विजय की सूचना मिलने के पहले ही वृद्ध सम्राट कुमारगुप्त प्रथम दिवंगत हो चुका था।

अश्वमेध यज्ञ

कुमारगुप्त प्रथम के सिक्कों से ज्ञात होता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था। अश्वमेध प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर यज्ञ-यूप में बँधे हुये घोड़े की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर ‘श्रीअश्वमेधमहेन्द्रः’ मुद्रालेख अंकित है। परन्तु अपनी किस महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के उपलक्ष्य में कुमारगुप्त प्रथम ने इस यज्ञ का अनुष्ठान किया, यह हमें ज्ञात नहीं है।

प्रशासन

साम्राज्य को प्रान्तों में बाँटा गया था। प्रान्त जनपदों में बँटे थे। गाँव निःसंदेह सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई थे। गुप्त-प्रशासन पर अलग से चर्चा करना उचित होगा। हम यहाँ कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों के आधार पर उसके प्रशासन का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे।

  • साम्राज्य प्रान्तों में बँटा था। प्रान्त के लिये हमें ३ शब्द मिलते हैं; देश, अवनी और भुक्ति। भुक्ति का शासक ‘उपरिक’ कहलाता था। उपरिक ‘महाराज’ की उपाधि धारण करते थे।
  • भुक्ति (प्रान्त) विषयों (जनपदों या जिला) में विभाजित थे। विषय का प्रशासक ‘विषयपति’ कहलाता था।
  • विषय वीथी में विभाजित थे।
  • कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों से उसके अनेक पदाधिकारियों के नाम ज्ञात होते हैं। प्रान्त को ‘भुक्ति’ कहा गया है। प्रान्तीय शासक को ‘उपरिक महाराज’ कहा जाता था।

कुमारगुप्त के लेखों से निम्नलिखित प्रशासकों के नाम ज्ञात होते हैं—

चिरादत्त (उपरिक)

घटोत्कचगुप्त (उपरिक)

  • वह एरण प्रदेश (पूर्वी मालवा) का शासक था। इसके अन्तर्गत तुम्बवन भी सम्मिलित था। तुमैन अभिलेख (अशोक नगर जनपद, मध्य प्रदेश) से उसके विषय में सूचना मिलती है।

बन्धुवर्मा (उपरिक)

  • मन्दसौर अभिलेख से उसके विषय में सूचना मिलती है। वह पश्चिमी मालवा क्षेत्र में स्थित दशपुर का राज्यपाल था।

पृथिवीषेण (सचिव, कुमारामात्य तथा महाबलाधिकृत)

  • उसके नाम का उल्लेख करमदण्डा लिंग-लेख में हुआ है। वह सचिव, कुमारामात्य तथा महाबलाधिकृत के पदों पर कार्य कर चुका था। उसका कार्य-स्थल अवध का प्रदेश था।

वेत्रवर्मन (विषयपति)

विषय-समिति

  • इसकी सहायता से विषयपति प्रशासन चलाता था।
  • इसकी जानकारी दामोदरपुर ताम्र-लेख (प्रथम) और दामोदरपुर ताम्र-लेख (द्वितीय) से होती है।
  • इस समिति में चार सदस्यों का उनके पदों का नाम सहित उल्लेख मिलता है— नगरश्रेष्ठि धृतिपाल, सार्थवाह बन्धुवर्मा, प्रथम-कुलिक धृतिमित्र और प्रथम-कायस्थ शाम्बपाल।

पुस्तपाल

अन्य विवरण

धर्म तथा धार्मिक नीति

कुमारगुप्त अपने पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय के ही समान एक वैष्णव था। गढ़वा अभिलेख में उसे ‘परमभागवत’ कहा गया है— “परमभागवत महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्त राजस्य।” परन्तु वह अन्य धर्मों के प्रति पूर्णरूपेण सहिष्णु था। उसके विविध लेख इस बात के साक्षी है कि उसने अपने शासन काल में बुद्ध, शिव, सूर्य आदि देवताओं की उपासना में किसी प्रकार का विध्न नहीं पड़ने दिया, बल्कि इसके लिए पर्याप्त सहायता एवं प्रोत्साहन दिया था।

  • मनकुँवर बुद्ध-प्रतिमा लेख से पता चलता है कि बुद्धमित्र नामक एक बौद्ध ने महात्मा बुद्ध की मूर्ति की स्थापना की थी।
  • करमदण्डा लिंग-लेख से पता चलता है कि उसका राज्यपाल पृथिवीषेण शैव मतानुयायी था।
  • मन्दसौर अभिलेख के अनुसार पश्चिमी मालवा में उसके राज्यपाल बंधुवर्मा ने सूर्य-मन्दिर का निर्माण करवाया था।

इन उल्लेखों से कुमारगुप्त की धार्मिक सहिष्णुता प्रकट होती है। उसी के शासन में नालंदा के बौद्ध महाविहार की स्थापना की गयी है।

हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि इसका संस्थापक “शक्रादित्य” था। इससे तात्पर्य कुमारगुप्त प्रथम से ही है जिसकी एक उपाधि “महेन्द्रादित्य” थी। ये दोनों शब्द समानार्थी हैं। वह एक उदार शासक था जिसने अनेक संस्थाओं को दान दिया।

मूल्यांकन

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि कुमारगुप्त प्रथम का शासन शान्ति और सुव्यवस्था का काल था। उसके समय में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर था। समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय ने जिस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया उसे कुमारगुप्त ने संगठित एवं सुशासित बनाये रखा।

यद्यपि उसने कोई विजय नहीं की तथापि गुप्तों की सैनिक शक्ति क्षीण नहीं होने दिया। यह इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि उसके शासन के अन्तिम दिनों में गुप्त सेना ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया।

यह बात कुमारगुप्त के लिये कम गौरव की नहीं है कि उसने इतना विशाल साम्राज्य, जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था, को पूर्णतया सुरक्षित बनाये रखा।

उसके स्वर्ण सिक्कों पर उसे ‘गुप्तकुलामलचन्द्र’ तथा ‘गुप्तकुलव्योमशशी’ कहा गया है। ये उपाधियाँ सर्वथा सार्थक प्रतीत होती है। वह अपने पिता की ही भाँति वीर और यशस्वी शासक था। मुद्राओं पर अंकित लेख उसकी शक्ति एवं वैभव की सूचना देते हैं। निःसन्देह उसके शासन काल में गुप्त-साम्राज्य की गरिमा सुरक्षित रही तथा कुमारगुप्त ने शान्ति एवं सुखपूर्वक राजलक्ष्मी का उपभोग किया।

FAQ

कुमारगुप्त प्रथम पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
(Write a short note on Kumargupta I.)
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के बाद कुमारगुप्त प्रथम गुप्त साम्राज्य का शासक बना।
  • कुमारगुप्त प्रथम चन्द्रगुप्त द्वितीय और ध्रुवदेवी का पुत्र था।
  • कुमारगुप्त प्रथम की पत्नी का नाम अनन्त देवी और पुत्रों के नाम स्कन्दगुप्त और पुरुगुप्त मिलते हैं।
  • कुमारगुप्त प्रथम का शासनकाल ४१५ ई० से ४५५ ई० था।
  • ४० वर्षीय दीर्घकालीन उसका शासनकाल शान्तिपूर्ण और समृद्ध था।
  • उत्तराधिकार में प्राप्त विशाल साम्राज्य को कुमारगुप्त प्रथम ने पूर्णतया सुरक्षित बनाये रखा। उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था।
  • अश्वमेध प्रकार के सिक्कों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने अश्वमेध यज्ञ किया था।
  • उसने कई उपाधियाँ धारण कीं; जैसे— अप्रतिघ, अश्वमेधमहेन्द्र, परमदैवत, महेन्द्रादित्य, इत्यादि।
  • उसके शासनकाल के अंतिम दिनों में ‘पुष्यमित्र’ नाम जाति ने आक्रमण किया, जिसे राजकुमार स्कन्दगुप्त ने सफलतापूर्वक कुचल दिया।
  • गुप्त शासकों में कुमारगुप्त प्रथम के सर्वाधिक अभिलेख (लगभग १८) प्राप्त हुए हैं।
  • उसने दीनार (स्वर्ण सिक्के), रुप्यक (रजत सिक्के) और माषक (ताम्र सिक्के) जारी किये। कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में सर्वाधिक १४ प्रकार के स्वर्ण सिक्के जारी किये गये। गुप्तकालीन बयाना निधि से उसके ६२३ सिक्के प्राप्त हुए हैं। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी मालवा और गुजरात में चाँदी के सिक्के चलवाये, जबकि मध्य भारत में इसे प्रचलित करवाने का श्रेय कुमारगुप्त प्रथम को है।
  • प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय का स्थापना उसी के शासनकाल में हुई।
  • कुमारगुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी ‘स्कन्दगुप्त’ हुआ।

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