कुमारगुप्त द्वितीय (४७३ ई०)

भूमिका

पुरुगुप्त के बाद सम्भवतया कुमारगुप्त द्वितीय कुछ समय के लिए स्वतंत्र शासक बना था। उसका इतिहास बहुत ही उलझा हुआ है। गुप्त लिपि में कुमारगुप्त (कुमारगुप्त द्वितीय) इस तरह अंकित है।

संक्षिप्त परिचय

नामकुमारगुप्त (द्वितीय)
पिता
माता
पत्नी
पुत्र
पूर्ववर्ती शासकपुरुगुप्त
उत्तराधिकारीबुधगुप्त
शासनकाल४७३ से ४७६ ई०
उपाधिक्रमादित्य
अभिलेखसारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख

स्रोत

राजनीतिक इतिहास

कुमारगुप्त (द्वितीय) पुरुगुप्त के बाद शासक बना। इसकी जानकारी हमें उसके सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख से प्राप्त होती है। इसकी पहली पंक्ति अधोलिखित है—

“वर्ष शते गुप्तानां सचतुःपञ्चाशदुत्तरे [।]

भूमिं रक्षति कुमारगुप्ते मासि ज्येष्ठे [द्वितीया]याम्॥”

—पंक्ति संख्या- १; सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख

इस अभिलेख से हमें निम्नलिखित तथ्य ज्ञात होते हैं—

  • इस अभिलेख में गुप्त संवत् १५४ अर्थात् ४७३ ईस्वी अंकित है जो बौद्ध प्रतिमा पर खुदा हुआ है।
  • सारनाथ लेख में “भूमिं रक्षति कुमारगुप्ते…” उत्कीर्ण मिलता है।
  • उल्लेखनीय है कि यहाँ कुमारगुप्त को “महाराज” भी नहीं कहा गया है।

यह निश्चित रूप से पता नहीं कि वह स्कन्दगुप्त का पुत्र था अथवा पुरुगुप्त का। परन्तु अधिकतर इतिहासकारों का मत है कि स्कन्दगुप्त का कोई पुत्र नहीं था। इसलिए हम उसके माता और पिता के सम्बन्ध में कुछ नहीं कह सकते हैं।

प्रश्न उठता है कि क्या कुमारगुप्त (द्वितीय) गुप्त साम्राज्य का सम्राट था अथवा वह गोप्ता?

कम से कम सारनाथ बुद्ध प्रतिमा लेख से तो ऐसा लगता है कि वह स्वतन्त्र शासक न होकर पुरुगुप्त का “गोप्ता” था जो सारनाथ में उसके प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था। इसका आधार है कि उसके लिए कोई उपाधि प्रयुक्त नहीं हुई है।

परन्तु यह तो समस्या का सरलीकरण हुआ। क्योंकि उसके सिक्कों पर उसका विरुद “क्रमादित्य” मिलता है। जैसा कि हमें ज्ञात है कि यह विरुद स्कन्दगुप्त का भी मिलता है।

इसलिए दो सम्भावनाओं पर विचार करना होगा—

एक; पुरुगुप्त और कुमारगुप्त (द्वितीय)

  • क्योंकि सारनाथ बुद्ध-मूर्ति लेख पर गुप्त संवत् १५४ (४७३ ईस्वी) अंकित है और उसकी कोई उपाधि भी नहीं है। इसलिए वह इस समय स्वतंत्र शासक नहीं था। यदि हम पुरुगुप्त के शासन को ४६७ से ४७६ ई० तक माने तो कुमारगुप्त (द्वितीय) सम्भवतः गोप्ता के रुप में सारनाथ का प्रशासक रहा हो।
  • दूसरी सम्भावना यह हो सकती है कि ४७३ ई० के बाद कुछ समय के लिए कुमारगुप्त (द्वितीय) स्वतंत्र शासक रहा हो। इस स्थिति में पुरुगुप्त का शासन को ४६७ से ४७३ ई० तक मानना होगा। इसी समय कुमारगुप्त (द्वितीय) ने सिक्के ढलवाये होंगे और “क्रमादित्य” की उपाधि धारण की होगी।

द्वितीय; कुमारगुप्त (द्वितीय) और बुधगुप्त

यह सम्भावना भी हो सकती है कि बुधगुप्त ने के अधीन कुमारगुप्त (द्वितीय) शासक रहा हो। इस सम्बन्ध में भी दो सम्भावनाएँ हैं—

  • बुधगुप्त के सारनाथ प्रतिमा लेख में उसे (बुधगुप्त) के लिए कोई विरुद नहीं मिलता है (पृथिवीं बुधगुप्ते प्रशासति)। यह अभिलेख गुप्त संवत् १५७ (४७६ ईस्वी) का है। अतः या तो बुधगुप्त अपने पिता पुरुगुप्त के अधीन प्रशासक था अथवा कुमारगुप्त (द्वितीय) के अधीन।
  • पुनः गुप्त संवत् १५९ (४७८ ईस्वी) सारनाथ स्तम्भ-लेख में हम बुधगुप्त के लिए “महाराजाधिराज” विरुद का प्रयोग पाते हैं (महाराजाधिराज-बुधगुप्त-राज्ये)। अर्थात् बुधगुप्त गुप्त साम्राज्य का सम्राट बन चुका था। इस स्थिति में हो सकता है कि उसने कुमारगुप्त (द्वितीय) को गद्दी से हटकर सत्ता पायी हो।

विश्लेषण

पुरुगुप्त, कुमारगुप्त (द्वितीय) और बुधगुप्त की स्थिति बहुत ही उलझी हुई है। पुरुगुप्त का तो स्वयं का कोई अभिलेख तक नहीं मिला है। हाँ परवर्ती लेखों में उसके लिए प्रयुक्त उपाधियों से ज्ञात होता है कि वह स्वतंत्र शासक रहा था।

कुमारगुप्त (द्वितीय) के सम्बन्ध में बस यह कहा जा सकता है कि वह ४७३ या ४७६ से ४७८ ई० के बीच किसी समय कुछ समय के लिए सम्राट बनने में सफल रहा। परन्तु शीघ्र ही बुधगुप्त उसे हटाकर सत्तासीन हो गया।

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